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8 विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? ® ४३५ ॐ
नियंत्रण (दमन). नहीं किया जाता, तब बेधड़क होकर जुआ, चोरी, माँसाहार, मद्यपान (नशीली चीजों का सेवन), वेश्यागमन, पर-स्त्रीगमन और शिकार (पशुपक्षीवध, पशुबलि, कत्ल, हत्या और आखेट और दगा आदि पंचेन्द्रियवध); इन सात कुव्यसनों का सेवन करने वाले नरकगामी बनते हैं, इहलोक और परलोक में भी अनेक चिन्ताओं, उद्विग्नताओं, दुःखों, संकटों, रोगों और तनावों से कष्ट पाते रहते हैं। एक बहुत ही सुन्दर रूपक इस सम्बन्ध में पढ़ा था, वह विचारणीय है
एक बाबाजी को किसी मनचले भक्त ने कहा-“महाराज ! आप विचित्रनगर पधारें, वहाँ सभी तरह की सुख-सुविधाएँ आपको मिलेंगी।" बाबाजी विचित्रनगर जाने और वहाँ सभी तरह के सुखोपभोग पाने के लोभ में पड़े। वहाँ से चलकर बाबाजी विचित्रनगर के मुख्य दरवाजे पर पहुंचे। वहाँ के दरबान ने कहा-“यहाँ पहले जुआ खेलो, फिर नगरप्रवेश का टिकट मिलेगा। उसे लेकर दूसरे दरवाजे पर जाना।" यह सुनते ही बाबा चौंका-"हाय ! मैं जुआ कैसे खेलूँ ?" फिर मन को समझाया-“जुए में क्या है ? ताश के पत्ते ऊपर-नीचे करने हैं। इसमें कहाँ कोई जीव मारना पड़ता है?" यों सोचकर बाबा जमकर जुआ खेलने लगा। जुआ खेलने पर टिकट मिली। उसे लेकर दूसरे दरवाजे गया। यहाँ का दरबान बोला-“पहले मदिरापान करो तो टिकट मिलेगा। उसे लेकर तीसरे द्वार पर जाना।" लोभ में अन्धे बने हुए बाबा ने सोचा-“मद्य पीने में क्या हर्ज है ? यह तो वनस्पति का ही रस है।" यों बाबा, मद्य की बोतल गटगटा गया। फिर यहाँ से टिकट लेकर गया तीसरे दरवाजे। यहाँ का दरबान बोला-“यहाँ पहले माँस खाओ, फिर टिकट मिलेगा। उसे लेकर चौथे दरवाजे पर जाना।" बाबा ने सोचा-"अरर् ! माँस कैसे खाया जाए?" परन्तु पापकर्म के मूल लोभ का कीड़ा कुलबुला रहा था। अतः बाबा ने मन को समझाया-“माँस खाने में क्या है ? हम स्वयं कोई जीव मारते नहीं, यह तो प्राणी का मृत शरीर है। गेहूँ, बाजरा आदि भी तो जीव के शरीर ही हैं न?" अतः उसने मन को समझाकर माँस.सेवन कर लिया। टिकट मिला। उसे लेकर गया चौथे दरवाजे। वहाँ के दरबान ने कहा-“वेश्यागमन करने पर ही तुम्हें अन्दर प्रवेश करने दिया जाएगा।" बाबा चौंका-“बाप रे ! इसमें तो भ्रष्ट होना पड़ेगा। यह मेरे से कैसे होगा?" परन्तु अत्यधिक लोभ पाप के प्रति घृणा, भीति, लज्जा, मर्यादा सबको खा जाता है। बाबा ने भी वेश्यागमन जैसे महादुष्कृत्य के प्रति घृणा, लज्जा आदि उड़ा दी। मन को समझाया-“न दोषो चर्मघर्षणे।'' “चमड़ी को घिसने में कोई दोष नहीं है, इसमें कहाँ कोई जीव मरता है ? कहाँ झूठ बोलना या चोरी करनी पड़ती है?" अतः बाबा ने निःसंकोच वैश्यागमन भी कर लिया। अब क्या बाकी रहा पापकर्म करने में ? अविरतिजन्य पापकर्मबन्ध में?" अब तो उस बाबा को जुआ, शराब,