________________
* ४३४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
कर्म-आगमन का प्रवेशद्वार कहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि “प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन-शल्य तक के पापों का त्याग न करने से जीव (कर्मों से) भारी हो जाता है। जो व्यक्ति इन १८ पापों का त्याग नहीं करता (प्रतिज्ञाबद्ध नहीं होता), उसका (जन्म-मरणरूप) संसार बढ़ता है, दीर्घ होता है और वह बार-बार संसार में परिभ्रमण करता रहता है।” “तलवार आदि द्रव्यशस्त्रों की तरह अविरति भावशस्त्र हैं, जोकि मन, वचन और काया को दुष्प्रयुक्त करने से होती है।" अविरतियुक्त मानव को क्रूरकर्मा बताकर भगवान के कहा-"वह वैर का आयतन खड़ा करके तथा बहुत पापकर्मों को संचित करके कृत पापकर्मों के भार से उसी प्रकार अधमाधम नरक में जाता है, जैसे पत्थर का गोला जल में डालने पर अथाह जल को पार कर एकदम नीचे पृथ्वीतल पर पहुँच जाता है।"२ . सप्त कुव्यसनों से अविरति का भयंकर दुष्परिणाम ___ आज अविरति के अन्धचक्र में पड़े हुए लोग जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की बेतहाशा दौड़ में समाज-व्यवस्था को विकृत और विशृंखल करने वाले सप्त कुव्यसनों से ग्रस्त हो रहे हैं। उनमें बढ़ रही है-विलासिता, स्वच्छन्दता, असीमित आकांक्षा, अनैतिकता और व्यक्तिवादी (अतिस्वार्थी) मनोवृत्ति। इस अविरति के कारण निरंकुशता, स्वच्छन्दता आज के युवकों में पनप रही है। बड़ों के प्रति, गुरुओं के प्रति सम्मान, विनय और आदर का स्थान उपेक्षाभाव और उदासीनता ने ले लिया है। खानपान और रहन-सहन के तौर-तरीके प्रायः पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रहे हैं। और तो और, गृहस्थवर्ग में तथा छात्र-छात्राओं में भी नशीली चीजों का सेवन धड़ल्ले से चल रहा है, वैसा ही भंगेड़ी-गंजेड़ी साधु बाबाओं में भी शराब, हिरोइन, ब्राउनसुगर आदि के सेवन की प्रवृत्ति जोरों पर है। इसके साथ ही माँस, मछली और अंडों का सेवन तथा बलात्कार एवं व्यभिचार भी बेधड़क हो रहा है। मतलब यह है कि जब अपनी अनियंत्रित इच्छाओं और वासनाओं पर स्वेच्छा से १. (क) 'आज का आनन्द' (दैनिक समाचार-पत्र) दि. २६-१२-९४ से भाव ग्रहण
(ख) देखें-उत्तराध्ययन का चित्रसम्भूतीय १३वाँ अध्ययन
(ग) देखें-उत्तराध्ययन का महानिग्रंथीय नामक २०वाँ अध्ययन २. (क) पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं.-मिच्छत्तं अविरती पमाया कसाया जोगा।
-स्थानांग. ५/२/१०९, समवायांग. ५/४ (ख) जीवा संसारं आउलीकरेंति, एवं दीहीकरेंति, एवं अणुपरियट्टयंति।
-भगवतीसूत्र १/९/१८४, ज्ञाताधर्मकथा, अ. ७ (ग) जहा सत्थमग्गी विसं लोणं सिणेहो खारमंबिलं (तहा) दुप्पउत्तो मणो वाया काओ भावतो अविरती।
-ठाणांग 90/९३ (घ) सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. २, गा. ५९