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________________ ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? ॐ ४३३ ॐ प्रभात में स्पर्श किया, तभी आँखें खुलीं। समुद्रतट पर १२ घंटे के बदले उसने २४ घंटे मस्ती से बिताये और तरोताजा होकर घर लौटा। पत्नी-बालकों ने उसका स्वागत किया। आर्थर के जीवन के मूल्य बदल गए। पहले जहाँ वह अविरति का तामसिक एवं राजसिक जीवन जीता था, वहाँ अब विरति का सात्त्विक, त्यागमय एवं सादा जीवन जीने लगा। विरति से ही सुख-शान्ति, कर्ममुक्ति या सुगति सम्भव है ___ इसलिए जब तक सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक असंयम से, भोगोपभोगों से या सुविधावाद से विरति नहीं होती, तब तक सच्चे माने में सुख, शान्ति और सन्तुष्टि नहीं मिल सकती। कई लोग कह देते हैं, धन से सब कुछ मिल सकता है, परन्तु अनुभवियों ने इस बात को गलत कहा है। उनका कहना है-रुपयों से कदाचित् सुविधा मिल सकती है, शान्ति नहीं; रुपयों से औषध मिल सकती है, रोगमुक्ति या आयुवृद्धि नहीं; रुपयों से डॉक्टर मिल सकते हैं, स्वास्थ्य नहीं; रुपयों से साधन मिल सकते हैं, सुखानुभव नहीं; रुपयों से स्त्री मिल सकती है, धर्मपत्नी नहीं; रुपयों से सहचर मिल सकता है, सच्चा मित्र नहीं; रुपयों से पुस्तक मिल सकती है, विवेक विद्या नहीं; रुपयों से शरीर की साजसज्जा हो सकती है, आत्मा की साजसज्जा नहीं; रुपयों से गृहस्थ-जीवन में अनाथी मुनि के पास अपार वैभव था, सभी तरह के सुखभोग के साधन थे, एक से एक बढ़कर सुविधाएँ थीं, परिवार के सभी सदस्य उनकी सेवा-परिचर्या में संलग्न थे, चिकित्सक, मंत्र-तंत्रवादी आदि सभी अपने-अपने ढंग से अच्छे से अच्छा उपचार कर रहे थे, फिर उनकी आँखों में जो दारुण वेदना हो रही थी, वह शान्त नहीं हुई। किन्तु जब उन्होंने स्वयं पर-भावों और शरीर के प्रति आश्रयरागभाव को छोड़कर अर्थात् इनसे होने वाले पापकर्मों से निवृत्त होकर आत्म-भाव में, आत्माश्रित होने का विरति-संवर का संकल्प किया तो रातभर में रोग शान्त हो गया और वे अविरति से हटकर विरति के पथ पर चल पड़े। दूसरी ओर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पास अपार वैभव, सुखोपभोग के प्रचुर साधन थे, किन्तु गाढ़ रागभाव और मोहमूढ़ता के कारण वह पंचेन्द्रिय भोगों की आसक्ति से, हिंसादि पापों से तथा असंयम से विरत न हो सका, इतना ही नहीं, वह न्यायनीति संगत आर्यकर्म भी न कर सका। फलतः अविरति के कारण वह मरकर नरकगामी बना। अविरति के कारण जीवनभर मूढ़तावश उसने पापाचरण ही किया। एकान्त अविरति क्या है, क्या नहीं ? भगवान महावीर ने अठारह पापस्थानों के त्याग को विरति और उनके त्याग नं करने (प्रवृत्त रहने) को अविरति कहा है। ऐसी अविरतिं को उन्होंने आस्रव = १. “मैं आत्मा हूँ, भा. २' (डॉ. तरुलताबाई साध्वी) से संक्षिप्त, पृ. १८४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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