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________________ ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे ? ॐ ४३७ ® बार-बार होता ही रहता है, इन बाह्य हमलों के अवसर पर अज्ञात मन में चिरकाल से घुसे हुए मोहकर्मजन्य कुविचार एवं अज्ञानजन्य मूढ़ताएँ तो प्रायः प्रति क्षण हमला करती रहती हैं। उस समय पूर्वोक्त शुद्ध धर्म की पूँजी को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय है-व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान और नियमों का दृढ़ संकल्पपूर्वक स्वीकार ! - व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान एवं नियमों में पुरुषार्थ करके उत्थान के शिखर पर पहुँच जाने पर भी इनके आचरण में दृढ़ता की कमी, संकल्पबद्धता में शिथिलता के कारण, कुनिमित्तों और कुव्यसनों के कुसंस्कारों के कारण हजार-हजार वर्ष तक संयम-पालन की पूर्ण पूँजी होते हुए भी कंडरीक अविरति के गहरे गर्त में गिर गया। सुविधावाद एवं इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति के कुनिमित्त के कारण कंडरीक ने संयमी जीवन को तिलांजलि देकर भोगी एवं कुव्यसनी अविरति जीवन स्वीकार करके सिर्फ तीन ही दिन में घोर तमस्तोम वाली सातवीं नरकभूमि में गमन किया। विरति का त्याग करके अविरति का स्वीकार करने का कितना भयंकर परिणाम? परन्तु अविरति के अन्धकारमय गर्त में पड़े हुए बंकचूल चोर ने जैनाचार्य का सुनिमित्त मिलने से सिर्फ चार नियमों का दृढ़तापूर्वक स्वीकार किया और फिसलन के निमित्त मिलने पर भी दृढ़तापूर्वक उन पर टिके रहने से, उसे भविष्य में आध्यात्मिक विकास करने हेतु बारहवाँ देवलोक मिला। (१) राजा की रानी को मातृवत् मानना, (२) अनजाना फल न खाना, (३) किसी की हत्या करने से पहले सात कदम पीछे हटना, (४) कौए का माँस न खाना; इन चार नियमों के पालन में बंकचूल को अनेक कष्ट, प्रलोभन, भय और मरणान्त वेदना के अवसर आए, परन्तु वह जीवन के अन्त तक उनके दृढ़तापूर्वक पालन में संलग्न रहा। अतः विरति के प्रभाव से व्यक्ति उच्च स्थान पर पहुँच जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं।' अविरति : स्वरूप, परिणाम, फल और स्थान - आशय यह है कि जो व्यक्ति त्याग, तप, संयम, नियम, व्रत, प्रत्याख्यान आदि से एकान्ततः प्रतिज्ञाबद्ध नहीं होता, वह अविरति है, अर्थात् वहाँ पापों से विरति-निवृत्ति नहीं है। अपितु असंयम, अव्रत, अप्रत्याख्यान, नियम-संयम से सर्वथा विहीनता, सर्वथा त्यागरहितता के रूप में अविरति है; वही तो पाप की हेतु है। जब तक स्वेच्छापूर्वक संकल्पबद्ध होकर पापों का त्याग नहीं किया जाता, नियमपूर्वक पाप नहीं छोड़े जाते, तब तक अविरतिरूप आनव (पापकर्मों का प्रवेश) चालू रहता १. (क) 'दिव्यदर्शन', दि. १०-३-९० से भावांश ग्रहण (ख) सुव्वए कम्मइ दिवं। -उत्तरा., अ. ५/२२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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