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________________ ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे ? * ४३१ * (वीतराग) प्ररूपित-शुद्ध धर्म-श्रवण के भी अयोग्य बताया है। व्रताचरण या विरति-संवर करना तो ऐसे लोगों के लिए बहुत ही दुर्लभतर है। अशान्ति अविरतियुक्त जीवन से विरतियुक्त जीवन की ओर जिनका लक्ष्य अधिकाधिक धन येन-केन-प्रकारेण कमाकर सुखोपभोग करना होता है, उनका जीवन कितना चिन्तातुर, कितना अशान्त तथा महारंभ-महापरिग्रह के कारण पापकर्मों से ग्रस्त रहता है ! यूरोप के एक धनकुबेर आर्थर का जीवन इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है। आर्थर का जीवन संसार-मान्य सभी सुखसुविधाओं और भोग-साधनों से सम्पन्न था। त्याग और विरति का उसके जीवन में नामोनिशान न था। वह अहर्निश भोगों में मग्न रहता था। उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था-अधिकाधिक धन कमाना और सुखोपभोग में जीवन बिताना। परन्तु धनार्जन के साथ-साथ उसका जीवन चिन्ताओं से ग्रस्त रहता था। इस चिन्ता के मारे उसका खाना-पीना, नींद और भूख सभी पलायन कर गये। स्वास्थ्य चौपट हो गया। अनेक बार पत्नी के समझाने के बावजूद भी उसके मन को शान्ति और चिन्तामुक्ति न मिली। अतः उसकी पत्नी ने किसी तरह समझाकर उसके एक जिगरी दोस्त डॉक्टर के पास भेजा। आर्थर ने डॉक्टर से अपनी मानसिक चिन्ता, व्याकुलता, अशान्ति और अनिद्रा की दवा माँगी। डॉक्टर समझ गया कि इसे कोई शारीरिक रोग नहीं है, किन्तु धन की तृष्णा, भोग-लालसा और सांसारिक पदार्थों की आसक्तियों से ग्रस्त हैं, इसी कारण यह चिन्ताओं से घिरा रहता है। इसे अविरति का ही रोग है। इसी रोग को मिटाने की दवा इसे देनी है। अतः डॉक्टर अंदर कमरे में गया और चार कागजों पर कुछ लिखकर उनकी चार पुड़िया बाँधकर लाया और आर्थर के हाथों में थमाते हुए बोला-“कल प्रातःकाल से ही यह दवा लेनी है। तीन-तीन घंटे बाद एक-एक पुड़िया ले लेना। इससे एक ही दिन में तुम्हारा सारा रोग छूमंतर हो जाएगा। इसकी सरल विधि यह है कि कल प्रातःकाल ही सूर्योदय से पहले यहाँ से दूर समुद्रतट पर एकान्त शान्त स्थान पर चले जाना। वहाँ तुम्हें १२ घंटे तक अकेले ही रहना है। साथ में भोजन-सामग्री और शरीर पर ढीलेढाले वस्त्रों के सिवाय और कुछ भी नहीं ले जाना है।" इसे सुनकर पहले तो आर्थर ने आनाकानी की कि अपना व्यवसाय छोड़कर १२ घंटे तक एकान्त में मुझसे नहीं रहा जाएगा। मेरे जिम्मे कितने काम होते हैं ? उन्हें कौन करेगा?" डॉक्टर मित्र ने समझाते हुए कहा-“तुम्हें शान्ति चाहिए न? मन को चिन्तामुक्त करने के लिए एक बार १२ घंटे का समय निकालकर देखो तो सही ! १. दोहिं ठाणेहिं जीवा न लभेज्ज केवलिपण्णत्तं धम्मं सवणयाए-महारंभेण चेव महापरिग्गहेण चेव। -ठाणांगसूत्र, ठा. २
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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