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कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
समय तक ही ग्रहण-सेवन कर पाता है। फिर प्रत्येक व्यक्ति की साँसें सीमित हैं। इसी तरह पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन भी सीमित मात्रा में, सीमित काल तक ही कर पाता है; सोना-जागना भी उसका अमुक काल तक सीमित है। देखना, चखना, सूंघना, स्पर्श करना, सुनना आदि भी २४ घंटे नहीं करता है, ये सब भी सीमित हैं। अतः सुविधावादी-भोगवादी व्यक्ति यह सोच लें कि परिवार या समाज के साथ रहते हुए भी किसी वस्तु का निरंकुश उपभोग या असीमित या अमर्यादित काल तक उपभोग नहीं किया जा सकता। तब फिर इन सब पदार्थों के उपभोग का जीवन में व्रत-नियम ग्रहण द्वारा स्वेच्छा से संतुलन करे तो उसके जीवन में सम्यग्दृष्टिपूर्वक विरति-संवर हो सकता है अपरिमित अविरति का निरोध भी। भगवान महावीर ने व्रतनियम-मर्यादायुक्त जीवन को सर्वत्र प्रशस्त (प्रशंसनीय) बताते हुए कहा है-“सुशील, सुव्रती, सद्गुणी, मर्यादायुक्त एवं प्रत्याख्यान-पौषधोपवास से युक्त व्यक्ति के तीन स्थान प्रशस्त होते हैं-इहलोक भी, परलोक भी तथा उससे आगे का जन्म भी प्रशस्त होता है।"१ महारम्भी महापरिग्रही के लिए व्रताचरण दुःशक्य
यद्यपि संसार में पदार्थ असंख्य हैं, परन्तु व्यक्ति की साँसें. सीमित हैं, इस कारण वह सभी पदार्थों का, सर्वकाल तक उपभोग नहीं कर पाता, फिर भी सुविधावादी या भोगवादी उपभोग-परिभोग के मामले में सन्तुष्ट नहीं है, वह अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को अनापशनाप अमर्यादितरूप से बढ़ाकर उनकी पूर्ति करने के लिए बाहरी दौड़ लगाता है। कुछ जमानावाद के शिकार लोगों ने फैशन और कुव्यसन के चक्कर में पड़कर अच्छे और मनोज्ञ पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग करने का प्रयास किया। आकांक्षा वह विस्तार है, जिसमें आदमी का मन कहीं रुकता ही नहीं। आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आज के निरंकुश अर्थप्रधान दृष्टि वाले लोगों ने नारा लगाया-"खूब कमाओ और खूब भोगो।" अर्थात् वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाओ और अधिकाधिक भोग सामग्री का उपभोग करो। प्राचीनकाल में जिनकी दृष्टि भोगवादी होती थी वे महारम्भ और महापरिग्रह बढ़ाते थे। अनापशनाप आरम्भ करके अत्यन्त परिग्रहवृद्धि करने वाले लोगों को भगवान ने नरकगति का मेहमान बताया है, साथ ही उन्हें केवली १. तओ ठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स सप्पच्चक्खाण-पोसहोववासस्स पसत्था भवंति, तं.-अस्सिं लोगे पसत्थे भवति, उववाए पसत्थे भवति आजाती पसत्था भवति ।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ३, सू. ३१६ २. (क) बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः।
-तत्त्वार्थसूत्र ६/१६ (ख) चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पगति, तं.-महारंभयाए महापरिग्गहयाए, पंचेंदिय वहेण कुणिमाहारेणं।
-ठाणांगसूत्र, स्था. ४, उ. ४