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ॐ विरति-संवर: क्यों, क्या और कैसे? ॐ ४२९ ॐ
व्रत-नियम आदि जीवन के लिए बन्धनरूप नहीं, सुरक्षणरूप हैं। हाँ, जो बन्धन पापकर्मों के बन्धनकारक हों, जीवन के आध्यात्मिक विकास को, व्यक्तित्व को रोकते हों, ठप्प करते हों, उसे असुरक्षित बनाते हों, जीवन के लिए खतरनाक हों, वे बन्धन अवश्यमेव त्याज्य हैं। किन्तु जिन बन्धनों के स्वीकार से व्यक्ति का व्यक्तित्व विकसित हो, उसका संयमी जीवन सुरक्षित रहता हो, उसके आत्म-गुण खिलते हों, वे बन्धन त्याज्य नहीं, उपादेय हैं।'
वैसे ही देखा जाए तो गृहस्थ-जीवन में भी कई मर्यादाओं का बन्धन स्वीकार करना पड़ता है। गृहस्थाश्रम में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि परिवार तथा समाज के लोगों के साथ व्यवहार में बोलने में, चलने में, खाने में, सोने में, उठने-बैठने में बहुत-सी मर्यादाओं का स्वीकार करना पड़ता है। यदि गृहस्थ-जीवन में रहकर उन मर्यादाओं का तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, मोह आदि वृत्तियों पर संयम का बन्धन न स्वीकारे तो वहाँ अराजकता और उच्छृखलता का साम्राज्य छा जाता है। इसलिए व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि का बन्धन वहाँ स्वीकार करके चलने पर अनेक अनिष्टों और बुराइयों से स्वतः मनुष्य बच सकता है। वहाँ भी संतुलित, संयमित, नियंत्रित होकर चलना पड़ता है, उच्छृखल होकर बुराइयों और दुर्व्यसनों में प्रवृत्त हो तो वहाँ भी सुख-शान्ति भंग हो जाती है। पापकर्मों का बन्ध करके वह दुर्गतिगमन को आमंत्रित कर लेता है।
उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत ... इसीलिए भगवान महावीर ने गृहस्थ श्रावकों के लिए उपभोग और परिभोग की मर्यादा का व्रत बताया। उसके पीछे उनका उद्देश्य यही था कि संसार में भोग्य और उपभोग्य जितने भी पदार्थ हैं, उन सब का उपभोग एक व्यक्ति एक समय में, एक दिन में या जिंदगीभर में भी नहीं कर सकता भले ही उसके पास भोग्य-उपभोग्य सामग्री प्रचुर मात्रा में हो। जैसे-एक व्यक्ति दिनभर में या दो या तीन टाइम में या जिंदगीभर में भी दुनियाँ के समग्र पदार्थों का सेवन नहीं कर पाता। मान लीजिएएक व्यक्ति भोजन के समय दो या तीन साग खाता है, वह जितने भी प्रकार के साग हैं या भाजी हैं, उन सब का सेवन नहीं कर पाता। यों भी कह दें तो कोई अत्युक्ति नहीं कि जीवनभर में भी संसार की समस्त वनस्पतियों का उपभोग नहीं कर पाता।
और उन्हें भी दो या तीन टाइम के भोजन के अलावा नहीं खाता, दिन और रात के २४ घंटे नहीं खाता, न ही सब पेय वस्तुएँ, दिन-रात के २४ घंटे तक पीता है। इसी प्रकार स्नान, अभ्यंगन, दाँतुन, मुख-शुद्धि, फलाशन या प्रातराश (नाश्ता), भोजन, वस्त्र-धारण, विलेपन, आभूषण-परिधारण आदि बुहत थोड़ी मात्रा में, बहुत थोड़े
१. 'दिव्यदर्शन', दि. १०-३-९0 के अंक से भाव ग्रहण, पृ. १९१