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विरति - संवर: क्यों, क्या और कैसे ?
सुविधावाद का लक्ष्य : अधिकाधिक पदार्थोपभोग
वर्तमान युग भौतिकवादी है। भौतिकविज्ञान ने एक से एक बढ़कर यंत्रों का आविष्कार करके मनुष्य को अधिकाधिक सुविधावादी बना दिया है। यंत्रों के सहारे से मनुष्य इंन्द्रिय-विषयों और विषयसुखोपभोग के साधनों का अधिकाधिक उपभोग करने लगा है। वह इतना सुविधावादी बन गया है कि उसे अपने जीवन पर किसी प्रकार का कंट्रोल करने, स्वेच्छा से ब्रेक लगाने और अपने आध्यात्मिकः विषय पर सोचने की रुचि, इच्छा और तड़फन प्रायः जाग्रत नहीं होती । भौतिक ( पौद्गलिक = जड़) पदार्थों के अहर्निश सम्पर्क और संसर्ग के कारण उसकी बुद्धि, संस्कार और वाचिक - कायिक चेष्टाएँ, मानसिक स्फूर्ति भी प्रायः भौतिक पदार्थानुगामिनी तथा आत्मिक चेतना के प्रति जड़ - मूढ़-सी बन गई है।
सुविधावादी मनुष्य के दिल-दिमाग में अध्यात्म चेतना को अवरुद्ध करने, कुंठित करने, शक्तिहीन करने तथा आवृत और सुषुप्त करने वाले कर्मास्रवों और कर्मबन्धनों की बात न तो स्फुरित होती है और न ही ठसती - जँचती है। कर्मविज्ञान द्वारा प्रस्तुत पाप, पुण्य और धर्म की बात को वह कतई ग्रहण नहीं करना चाहता । वह अपनी हर कामना, तृष्णा, आकांक्षा, कामभोगों की पिपासा और मनोज्ञ पदार्थों को पाने की लिप्सा - लालसा की पूर्ति को ही सुख और शान्ति मानता है । भर्तृहरि ने अनियंत्रित सुखभोगवादियों की सुखविषयक विपरीत मति का दिग्दर्शन कराते हुए कहा’–‘“जब प्यास से कण्ठ सूखने लगते हैं तो वह ठंडा और मधुर जल पी लेता भूख से पीड़ित होने पर माँसादि से युक्त भात खा लेता है; कामाग्नि उद्दीप्त होने पर अपनी प्रियतमा का गाढ़ आलिंगन कर लेता है, शरीर में व्याधि होने पर ( उपचारादि से ) उसका प्रतिकार कर लेता है। इस प्रकार पर (आत्म- बाह्य
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१. तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं शीतमधुरम् । क्षुधार्त्तः शाल्यन्नं कवलयति मांसादिकजितम् ॥ प्रदीप्ते कामाग्नी सुदृढतरमालिंगति वधूम् । प्रतीकारं व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। - भर्तृहरि वैराग्यशतक १९