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® सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार 8 ४१९ 8
द्वारा उसे धर्म में स्थिर करना स्थिरीकरण है। स्थिरीकरण के दो भेद हैं-अपनी आत्मा का स्थिरीकरण तथा दूसरे व्यक्तियों का स्थिरीकरण।
(७) वात्सल्य-निःस्वार्थ स्नेह, शुद्ध प्रेम या आत्मीयता रखना वात्सल्य है। यह धर्ममार्ग में समाचरण करने वाले सहधर्मी भाई-बहनों के प्रति शुद्ध स्नेहभाव रखना सम्यक्त्व-संवर की स्थिरता के लिए अतीव आवश्यक है। कल्याणमार्ग में स्थित व्यक्तियों के प्रति कुटुम्ब का-सा प्रेम रखना भी वात्सल्यभाव है।
(८) प्रभावना-प्रभावना का अर्थ है-धर्म की महिमा या कीर्ति बढ़ाना। लोगों को धर्म के प्रति प्रभावित करना। अपनी आत्मा को भी सम्यग्दर्शनादि धर्म के तेज से प्रभावित करना भी प्रभावना है। धर्म की उत्कृष्टता प्रगट करना ही प्रभावना का उद्देश्य है। सम्यक्त्व-संवर में स्थिरता के लिए ८ अंगों या गुणों को जीवन में अपनाना आवश्यक है। सम्यक्त्व-संवर में श्रावकवर्ग की दृढ़ता के लिए एक कवित्त प्रसिद्ध है
“नौ तत्त्व जान, सहाय न वांछे, डिगे नहीं देव-अदेव डिगाये। दोष बिना धरै दर्शन को, जिन सर्व अर्थ दिये गुंजाये॥ धर्म को राग रंग्यो हिरदे, अति धर्म करे, आपस में मिलाये।
निर्मल चित्त, अभंग दुवार, अंतेउर नाही परिग्रह नाये॥" :: यह है सम्यक्त्व-संवर का श्रावक-जीवन में सक्रिय आचार ! इससे उत्तरोत्तर निर्जरा और परम्परा से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष भी प्राप्त होना अवश्यम्भावी है।
१. 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण