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ॐ ४१८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
___ (३) निर्विचिकित्सा-यह तीसरा अंग है। इसका अर्थ है-धर्माचरण के फल की प्राप्ति के सम्बन्ध में सन्देह न करना। मैं जो भी तप, त्याग, व्रत, नियम आदि धर्माचरण कर रहा हूँ या साधना कर रहा हूँ, इसका फल मुझे मिलेगा या नहीं? कहीं यह साधना व्यर्थ तो नहीं जायेगी? इस प्रकार की आशंका रखना विचिकित्सा है। इस प्रकार के शंकित हृदय से साधना करने वाले व्यक्ति का मन अधीर हो उठता है। उसके लिए भगवान महावीर ने कहा-“विचिकित्सा-समापन्न आत्मा मनःसमाधि (अथवा ज्ञानादि से युक्त चित्त की एकाग्रता) प्राप्त नहीं कर पाता।"१ विचिकित्सा का एक अर्थ जुगुप्सा या घृणा करना भी है। अपने से बल, बुद्धि, रूप, वैभव, ज्ञान आदि में न्यून या हीन देखकर उसके प्रति घृणा, निन्दा करना, स्वयं की प्रशंसा करना भी विचिकित्सा है। सम्यक्त्व-संवर-साधक न तो स्वयं को अधिक मानकर अहंकार करता है और दूसरे से घृणा करता है। वह निर्विचिकित्सागुणधारक होता है।
(४) अमूढदृष्टित्व-यह सम्यक्त्व-संवर का चौथा अंग या गुण है। सम्यग्दृष्टि . देव, गुरु, धर्म, शास्त्र और लोक-व्यवहार आदि के विषय में मूढ़ताओं के चक्कर में नहीं फँसता। वह अपने जीवन में विचारधारा स्वच्छ-स्पष्ट ,एवं विवेकयुक्त तथा पवित्र रखता है।
(५) उपबृंहण-यह सम्यक्त्व-संवर की साधना के लिए आवश्यक अंग है। उपबृंहण का अर्थ है-वृद्धि कराना, बढ़ाना या पुष्टि करना। अपनी आत्म-शक्तियों को बढ़ाना; उन्हें कुत्सित या मलिन मार्ग में न लगाना। उपबृंहण गुण के होने से सम्यक्त्वादि रत्नत्रय में शिथिलता या स्खलना नहीं होती। उपबृंहण के बदले 'उपगूहन' गुण भी जैनग्रन्थों में पाया जाता है। जिसका अर्थ होता है-गोपन करना, ढकना। किसी साधर्मी बन्धु या सहृदय व्यक्ति से प्रमादवश कोई दोष या गलती हो गई हो तो उसका ढिंढोरा न पीटकर उसे एकान्त में प्रेम से समझाकर गलती को सुधारना। उसे अपमानित या निन्दित न करना। गलती का स्वीकार और सुधार कर लेने पर भी उसे न तो स्वयं प्रकट करना, न ही दूसरों द्वारा प्रकट कराना उपगूहन गुण है।
(६) स्थिरीकरण-यह छठा अंग है। कोई भी सम्यग्दृष्टि, व्रती श्रावक या महाव्रती साधु किसी प्रबल कषाय के उदयवश, मोहवश या कुसंगति से अथवा रोगादि या निर्धनता आदि कारणों से धर्म से पतित च्युत या विचलित हो रहा हो, धर्मान्तार करने को उद्यत हो रहा हो, उस समय धर्मवत्सल या सम्यक्त्वी-साधक
१. वितिगिच्छा-समावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं।
-आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. ५