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® सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ४१७ 8
तप, जप, ब्रह्मचर्य आदि पालन के फल के विषय में संशय करना-कौन जाने इसका फल मिलेगा या नहीं? विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वेधीभाव (बुद्धिभेद) उत्पन्न होना भेद-समापन्नता है अथवा अनध्यवसाय (अनिश्चितता) भी भेद-समापन्नता है। अथवा पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से बुद्धि में विभ्रम पैदा हो जाना भी भेद-समापन्नता है। जो वस्तु जिनेन्द्र भगवान ने जैसी प्रतिपादित की है, उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत बुद्धि रखना या विपरीत रूप में समझना कलुष-समापन्नता है।" अतः कांक्षामोहनीय कर्म सम्यक्त्व-संवर की स्थिरता और दृढ़ता में बहुत ही बाधक है। इसलिए इसी सन्दर्भ में भगवान ने कांक्षामोहनीय कर्म के निवारण का उपाय बताया है-“छद्मस्थता (अल्पज्ञता) वश जब भी किसी जिन प्ररूपित तत्त्व या तथ्य के विषय में शंकादि उपस्थित हो तब “तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं।" (जो जिनेश्वर देवों ने प्ररूपित किया है, वही सत्य है, शंकारहित है।) इस सूत्र को मन में धारण (निश्चय), आचरण करता हुआ, यों रहता हुआ, संवर करता हुआ जीव आज्ञासाधक होता है। यदि एक क्षण का भी प्रमाद किया तो प्रमाद कषाय और योगों के निमित्त से तत्क्षण कांक्षामोहनीय कर्म का बन्ध हो जायेगा। साधारण जीव या मानव की बात तो दूर रही, “श्रमण निर्ग्रन्थ भी (जब तक छद्मस्थ हैं) उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न
और कलुष-समापन्न होकर कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। अतः सम्यक्त्वसंवर के साधक को कांक्षामोहनीय कर्म से अवश्य बचना चाहिए।
१. (क) देखें-भगवतीसूत्र, श. १, उ. ३ में कांक्षाप्रदोष का पाठ, सूत्र १-५ (ख) (प्र.) कहं णं भंते ! जीवा कंखा-मोहणिज्जं कम्मं वेदेति?
(उ.) गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिच्छिया भेदसमावन्ना . कलुससमावन्ना एवं खलु जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेति। ..".: गोयमा ! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदित। से नूणं गोयमा !
एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिढेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए .. आराहए भवति।"
__-भगवती, श. १, उ. ३, सू. ५-६; आ. प्र. समिति, ब्यावर, खण्ड १, पृ. ६७-६८ (ग) (प्र.) जीवा णं भन्ते ! कंखा-मोहणिज्जं कम्मं बंधंति ?
(उ.) हंता, बंधति। पमाद-पच्चया जोगनिमित्तं च । -वही, श. १, उ. ३, सू. ८-९ (घ) तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं दंसणंतरेहिं चरित्तंतरेहिं लिगंतरेहिं पवयणंतरेहिं, पावयणंतरेहि
कप्पंतरेहिं, मग्गंतरेहिं मतंतरेहि, भंगंतरेहिं नयंतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिया कंखिया वितिगिच्छिया भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु समण निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति।
-भगवतीसूत्र, श. १, उ. ३, सू.. १५/२