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________________ * ४१६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * से रहित होना, यह निःशंकता का दूसरा अर्थ है। सम्यक्त्व वृद्धि के लिए सम्यग्दृष्टि के हृदय में निर्भयता और निःशंकता होनी आवश्यक है। (२) निष्कांक्षता-यह सम्यक्त्व-संवर-साधक का दूसरा गुण है। कर्ममुक्ति की साधना में साधक द्वारा अपने संयम, तप, अहिंसादि व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, ध्यान, मौन, जप, सेवा, क्षयादि दशविध धर्म, पंचविध आचार, रत्नत्रयी साधना के फलस्वरूप इहलौकिक या पारलौकिक भौतिक वैभव, लौकिक लाभ, सुखभोगों की वांछा करना, अपनी साधना का लक्ष्य इन्हीं क्षणिक भौतिक सुखों तथा भौतिक सिद्धियों को बना लेना कांक्षा दोष है। इस दोष से मुक्त होकर किसी भी पर-भाव की आकांक्षा या फलाकांक्षा न करके शुद्ध आत्म-स्वभाव में, सच्चिदानन्दस्वरूप में निष्ठावान् या तृप्त-सन्तुष्ट रहना निष्कांक्षता है। जो ऐसा निष्कांक्षता गुण से युक्त सम्यक्त्व-संवर-साधक है, उससे अनेक मुमुक्षु एवं जिज्ञासु मार्गदर्शन चाहते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है-“जिसने कांक्षा (फल की वांछा) का अन्त कर दिया है, वह अनेक मनुष्यों का नेत्र है-नेता या. मार्गदर्शक है।"२ एक विद्वान् ने निष्कांक्षता का अर्थ किया है-“किसी पुण्यकार्य के बदले में इहलौकिक-पारलौकिक सुखभोगों की वांछा न करना। कर्म और कर्मफलों को अपना न मानना।'' सम्यग्दृष्टि-संवर-साधक इन्द्रियजन्य सुखों को सुखरूप न मानकर इन्द्रियज सुखभोगों की वांछा नहीं करता। . कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन के कारण और निवारण . 'भगवतीसूत्र' में कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध और उसके वेदन का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-"चौबीस दण्डक के (समस्त संसारी) जीव कांक्षामोहनीय का तीन काल में बन्ध, चय, उपचय, उदीरण, वेदन और निर्जीर्ण करते हैं। उन-उन कारणों से शंकायुक्त, कांक्षायुक्त, विचिकित्सायुक्त एवं भेद-समापन्न और कलुष-समापन्न होकर जीव उक्त कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन (उदय में आये हुए उक्त कर्मों का फलभोग) करते हैं। आशय यह है कि कांक्षामोहनीय कर्मबन्धादि के फलभोग के शंकादि ५ कारण हैं। शंका का अर्थ है-वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने अपने अनन्त ज्ञान-दर्शन में जिन तत्त्वों का निरूपण किया, उन पर या उनमें से किसी एक पर शंका करना-कौन जाने यह यथार्थ है या नहीं। एकदेश से, सर्वदेश से अन्य दर्शन को स्वीकार करने की इच्छा करना कांक्षा है। एकदेश या सर्वदेश से १. देखें-स्थानांगसूत्र में ७ भयों का वर्णन २. से हु चक्खु मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए। -सूत्रकृतांगसूत्र
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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