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४१२ कर्मविज्ञान : भाग ६
(१) चार प्रकार की श्रद्धा - सम्यक्त्व - प्राप्ति के पश्चात् उसे शुद्ध रखने के लिए ४ बातों का श्रद्धान एवं ध्यान रखना चाहिए - ( १ ) परमार्थ संस्तव, (२) सुदृष्ट परमार्थ सेवा, (३) व्यापन्न (सम्यक्त्व भ्रष्ट ), तथा (४) कुदर्शन का परिहार । ' (२) तीन लिंग - सम्यक्त्व शुद्धि की तीन चिह्नों से पहचान - ( १ ) परम आगम-शुश्रूषा (सुशास्त्र सुनने की अत्यन्त उत्कण्ठा), (२) धर्मसाधना में उत्कृष्ट अनुराग (प्रीति और उद्यम ), (३) जिनेश्वरदेव तथा पंचाचारपालक गुरु की सद्भावपूर्वक वैयावृत्य (सेवा-भक्ति) नियमित रूप से करना ।
(३) दस प्रकार का विनय - अरिहन्त, अरिहन्त - प्ररूपित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, साधर्मिक एवं धार्मिक क्रियाओं का विनय करना। दर्शन विनय के मुख्य दो प्रकार - शुश्रूषा विनय और अनाशातना विनय । अनाशातना विनय के ४५ भेद हैं। पूर्वोक्त १० भेद और ५ ज्ञान के, यों १५ भेद हुए, इनके प्रत्येक के अनाशातना, भक्ति और बहुमान यों तीन-तीन भेद होने से १५ × ३ = ४५ भेद हुए। २
(४) तीन प्रकार की शुद्धि - मन, वचन और काया की शुद्धि । प्रशस्त मन से निःशंकित आदि ८ अंगों के पालन करने का चिन्तन करना, वचन से उनकी प्रशंसा करे और काया से निःशंक और प्रशस्तरूप से पालन करना सम्यक्त्व की शुद्धि है । ३
(५) शंकादि पाँच दूषणों का निवारण - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और मिथ्यादृष्टि संस्तव (अतिसंपर्क), इन ५ अतिचारों (दोषों) से दूर रहना सम्यक्त्व शुद्धि के लिए आवश्यक है ।
(६) आठ प्रभावक के रूप में प्रभावना करना - ( १ ) प्रावचनी, (२) धर्मकथी, (३) वादी, (४) नैमित्तिक, (५) तपस्वी, (६) विद्यावान, (७) सिद्ध (सिद्धियों से युक्त), और (८) कवि । इनमें से किसी भी उपलब्धि द्वारा निःस्वार्थभाव से धर्म एवं संघ की प्रभावना करना, बशर्ते कि अपनी ज्ञानादि साधना में विक्षेप न हो । ५
१. परमत्थ-संथवो वा, सुदिट्ठ-परमत्थ सेवणा वावि।
वावण्ण-कुदंसण-वज्जणा, इअ सम्मत्त- सद्दहणा॥
- उत्तराध्ययनसूत्र २८ / २८
२. सम्यक्त्व - सित्तरी, पृ. १६७
- भगवतीसूत्र, श. २५, उ. ७
३. मण-वाया- कायाणं सुद्धी सम्मत्तसोहिणी तत्थ । ४. प्रावचनिक धर्मकथिक आचार्य वज्रस्वामी थे । वादी प्रभावक मल्लवादी थे । नैमित्तिक भद्रबाहु
आचार्य थे। तपस्वी प्रभावक विष्णुकुमार मुनि, विद्या प्रभावक खपुटाचार्य, सिद्ध प्रभावक पादलिप्ताचार्य प्रसिद्ध हैं।
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(क) प्रवचनसारोद्धार द्वार १४८, गा. ९३४ (ख) सम्यक्त्व - सप्तति प्रकरण