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________________ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ४१३ (७) पाँच भूषण - (१) जैनदर्शन और धर्मशासन सम्बन्धी निपुणता - दक्षता, (२) प्रभावना, (३) तीर्थ सेवना, (४) स्थिरता' (दृढ़ता ), और (५) भक्ति। इन पाँचों से सम्यक्त्व को विभूषित करना । २ (८) सम्यक्त्व के पाँच लक्षण - शुद्ध सम्यक्त्वी के ये पाँच अन्तरंग लक्षण हैं(१) शम (कषायों का उपशमन या समभाव की वृत्ति), (२) संवेग (मोक्ष की तीव्र इच्छा), (३) निर्वेद (संसार से विरक्ति), (४) अनुकम्पा, और (५) आस्तिक्य । ३ ( ९ ) छह प्रकार की यतना - ( १ ) वन्दना, (२) नमस्कार, (३) दान, (४) अनुप्रदान ( सम्मान, बहुमान), (५) आलाप, और (६) संलाप। अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु और सद्धर्म के सिवाय अन्य तीर्थिक देव, गुरु और धर्म को देव बुद्धि, गुरु बुद्धि और धर्म बुद्धि से इन ६ बातों का व्यवहार न करें, सावधानी रखें। ४ (१०) सम्यक्त्व के छह आगार - ( १ ) राजाभियोग, (२) गणाभियोग, (३) बलाभियोग, (४) देवाभियोग, (५) गुरुनिग्रह, और (६) वृत्तिकान्तार; ये छह सम्यक्त्व के आपवादिकं कारण हैं। राजा या मंत्री आदि शासनकर्त्ता, गण ( संघ या गच्छ), प्रबल ( जबर्दस्त ), भूतप्रेतादि देव, गुरु ( बुजुर्ग, बड़े या शिक्षा-दीक्षा गुरु धर्मोपदेशक आदि) एवं वृत्ति- कान्तार ( आजीविका की कठिनता); इन छह का अभियोग यानी दबाव हो, बल प्रयोग हो या अत्यन्त आग्रह हो और मानने के सिवाय कोई चारा न हो, तब लाचारी से, उदासीनतापूर्वक आपवादिक गाढ़ कारण से उनको मानता है तो उसका सम्यक्त्व भंग नहीं होता । मारणान्तिक या प्राणान्तक संकट आ पड़ने पर ही ये छह आगार हैं । ५ (११) छह भावनाएँ - छह प्रकार की भावना से सम्यक्त्व शुद्ध और दृढ़ होता है - ( १ ) सम्यक्त्व धर्मरूपी वृक्ष का मूल है, (२) सम्यग्दर्शन धर्मरूपी नगर का द्वार है, (३) सम्यग्दर्शन धर्मरूपी महल की नींव है, (४) सम्यग्दर्शन धर्मरूपी (धार्मिक) १. सम्यक्त्व में स्थिरता = दृढ़ता के लिए श्रेणिक नृप का और भक्ति के लिए सुलसा श्राविका का दृष्टान्त द्रष्टव्य है। २. पावयणी धम्मकही वाई निमित्तओ तवस्सी य । विज्जा सिद्धो य कई अट्ठेव पभावगा भणिया || - सम्यक्त्व-सप्तति प्रकरण ३. वेदान्त में भी शम, दम, उपरम, तितिक्षा, श्रद्धा, विवेक इन्हें षट्साधक सम्पत्ति कहा गया है। ४. इन छह प्रकार की यतनाओं से सम्यक्त्व -संवर-साधक अशुद्धि प्रवेश से, चल-मल - अगाढ़ दोषों से बच जाता है। ५. अन्यतीर्थिक देव और गुरु को देव गुरु बुद्धि से वन्दन सुति, नमस्कार, दामादि, किन्तु संकट आदि कारणों में अनुकम्पा बुद्धि से अथवा सन्मार्ग पर लाने की बुद्धि से करने का निषेध नहीं है।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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