________________
ॐ ४०८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ *
का उपदेश करता हो, जो सर्वजीवों के लिए हितकर हो, जो मिथ्यामार्ग का युक्ति, प्रमाण आदि से निराकरण करता हो, वही शास्त्र है।" 'उत्तराध्ययनसूत्र' के अनुसार-“शास्त्र वह है, जिसे सुनकर साधक की आत्मा प्रतिबुद्ध होती है, वह तप, शान्ति (संयम) और अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होता है।"१ - इस प्रकार व्यवहार-सम्यक्त्व-संवर के साधक को इन दोनों प्रकार के लक्षणों के सन्दर्भ में विवेक, यतना, शुद्धि और सुरक्षा का ध्यान रखना आवश्यक है। सम्यक्त्व-संवर की साधना में मिथ्यात्व आम्रवों का निरोध . ..
सम्यक्त्व-संवर की साधना के लिए सब प्रकार के मिथ्यात्व आम्रवों का निरोध करना आवश्यक है। मिथ्यात्व के दस भेदों का उल्लेख पहले किया जा चुका है, इसके अतिरिक्त आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक, इन पाँच मिथ्यात्वों के स्वरूप और लक्षण का उल्लेख भी कर्मविज्ञान के तीसरे भाग में हम कर चुके हैं। ये १५ प्रकार हुए। आगे १६ से २५ तक के मिथ्यात्व इस प्रकार हैं-(१६) लौकिक मिथ्यात्व (लोकरूढ़ियों में अविचारपूर्वक बँधे रहना), (१७) लोकोत्तर मिथ्यात्व (पारलौकिक उपलब्धियों के लिए स्वार्थवश १. (क) पंचिंदिय-संवरणो तह नवविहबंभचेरगुत्ति धरो।
चउविहकसायमुक्को इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो॥ पंचमहव्वयजुत्तो पंचविहायारपालण समत्थो। पंचसमिओ तिगुत्तो छत्तीसगुणो गुरु मज्झ॥
-आवश्यकसूत्र (ख) विषयाशा-वशातीतो निरारम्भो निष्परिग्रहः।
ज्ञानध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। -रत्नकरण्डक श्रा., श्लो. १० (ग) योगशास्त्र प्रकाश २/९-१० (घ) दुर्गतौ प्रपतत्प्राणिधारणाद्धर्म उच्यते। संयमादिदशविधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये॥
-वही २/११ (ङ) देशयामि समीचीनं धर्मं कर्म-निवर्हणम्।
संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः। यदीय-प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥३॥
-र. श्रा. २-३ (च) अत्तागम-तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं। -नियमसार जीवाधिकार, गा. ५ (छ) आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमहष्टेष्टाविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्, सार्वं शास्त्रं कापथ-घट्टनम्॥
-र. श्रा.९ (ज) जं सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं।
-उत्तराध्ययन ३/८ २. मिथ्यात्व के दस भेद तथा आभिग्रहिक आदि ५ भेदों की व्याख्या कर्मविज्ञान, भा. ३ (कर्मों
के आस्रव और संवर) में की जा चुकी है।