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________________ ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ४०७ ® श्रद्धेय गुरुतत्त्व के विषय में ‘आवश्यकसूत्र' में एक पाठ में बताया गया हैजो पाँचों इन्द्रिय-विषयों को वश में करने वाले हैं, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियों के धारक हैं, चार प्रकार के कषायों से मुक्त हैं, इन अठारह गुणों से युक्त हैं तथा पाँच महाव्रतों के पालक, ज्ञानादि पंच आचार के पालन में समर्थ एवं पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त हैं, यो ३६ गुणों वाले श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं।" "रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कहा है-“जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति और वांछा से रहित हैं, षटजीवनिकाय की हिंसा (आरम्भ) से विरत हैं, निष्परिग्रही हैं और तपश्चरण में रत रहता है, वही गुरु प्रशस्त (प्रशंसनीय) है। नये साधु, श्रमण, संयत, मुनि, भिक्षु, निर्ग्रन्थ, संयमी आदि जैनजगत में प्रसिद्ध हैं। 'योगशास्त्र' के अनुसार-“जो. रात-दिन भोग-विलास में रत रहते हैं, राजसी ठाट-बाट से रहते हैं, भेंट चढ़ावे लेते हैं, माल-मलीदा खाते हैं, कंचन और कामिनी के चक्कर में पड़े रहते. हैं, नाटकादि देखते हैं, मादक पदार्थों का सेवन करते हैं और आरम्भ-परिग्रह में आसक्त रहते हैं, वे गुरु सम्यग्दृष्टि के लिए श्रद्धेय नहीं हो सकते।" धर्म का व्यावहारिक दृष्टिसम्मत लक्षण धर्म का व्यावहारिक दृष्टि से सम्मत लक्षण योगशास्त्र में इस प्रकार बताया गया है-"जो नरक और तिर्यंचगति में गिरते हुए प्राणियों को धारण करता है, रंक्षण करता है, वह धर्म कहलाता है। सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा उक्त संयम आदि दशविध धर्म मोक्ष-प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ है।" 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कर्ममुक्ति (मोक्ष) की दृष्टि से धर्म का लक्षण दिया गया है-“मैं कर्मक्षयकारक समीचीन धर्म बताता हूँ, जो प्राणियों को संसार के दुःखों से बचाकर उत्तम सुख को प्राप्त कराता धारण कराता है। धर्म-धुरंधर जिनेश्वरों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है। इनके विपरीत कुदर्शन, कुज्ञान और कुचारित्र संसारमार्ग के पोषक हैं। कर्मक्षयरूप वे धर्म नहीं हो सकते। जो मिथ्यादृष्टि एवं रागी-द्वेषी पुरुषों द्वारा प्रचलित तथाकथित धर्म हैं, जो हिंसादि दोषों से कलुषित हैं, वे धर्मनाम से प्रसिद्ध होने पर भी संसार-परिभ्रमण के कारण हैं।" शास्त्र या गुरु का लक्षण . दिगम्बर परम्परा में गुरु के बदले 'शास्त्र' या 'आगम' पर श्रद्धा को सम्यग्दर्शन माना है। शास्त्रों का उपदेशक 'गुरु' होता है। सत्-शास्त्र का लक्षण 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में इस प्रकार बताया गया है-"जो सर्वज्ञ आप्तपुरुषों द्वारा कथित हो, जिनके वचनों का वादी-प्रतिवादी द्वारा खण्डन न किया जा सके, जो प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध या बाधित न हो, जो वस्तुतत्त्व के यथार्थस्वरूप
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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