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________________ ॐ ४०६ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ करने वाले अन्ध-विश्वास प्रेरक, आडम्बरी एवं पंपची असाधु को साधु समझना और सच्चे साधुओं को असाधु समझना, तथैव पुण्य, पाप, अधर्म, युद्ध, राज्यलोभ, धनलोभ, सांसारिक अधिकार, पद आदि संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझना और जो कर्ममुक्ति का मार्ग है, उससे कतराकर उसे लौकिक मार्ग समझना अथवा उससे लौकिक कार्य लेने की प्रेरणा देना सम्यक्त्व में बाधक है। जो सर्वकर्ममुक्त विदेह सिद्ध परमात्मा हैं, उन्हें आवागमनकारी मानना और जो सृष्टि के कर्ता-हर्ता, लीला करने वाले तथा आवागमनकारी हैं, उन्हें ईश्वर या परमात्मा मानना, यह भी सम्यक्त्व में बाधक है। इस प्रकार नौ तत्त्वों के विषय में अविवेक, अश्रद्धा, कुशंका आदि मन में लाना, वचन से प्रगट करना सम्यक्त्व में दोष है। सम्प्रदाय-मत-पंथों को धर्म मानकर उनके नाम पर लड़ना-लड़ाना सम्यक्त्व में बाधक है। सम्यक्त्व-संवर-साधक के लिए उपादेय इसी प्रकार कुगुरु, कुदेव और कुधर्म को सुगुरु, सुदेव या सुधर्म मानना तथा देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता, लोकमूढ़तारे आदि मूढ़ताओं में मन-वचन-काया से संलग्न रहना भी सम्यक्त्व में बाधक है। जो अठारह दोषों से सर्वथा रहित हैं, सर्वज्ञ सम्पदा से युक्त हैं, जीवों को मुक्तिपथ का उपदेश देते हैं, त्रिलोक-स्वामी हैं, दिव्य औदारिक शरीरधारी हैं, जिन्होंने ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय कर दिया है, जो अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय से परिपूर्ण हैं, धर्मोपदेश है, वे आप्त अर्हन्त परमात्मा सम्यग्दृष्टि के लिए धर्मास्पद देव हैं, इसके विपरीत जो रागादि दोषों से युक्त हैं, अनुग्रह-निग्रह (वरदान-श्राप) परायण हैं, जो स्त्री-शस्त्रादि रखते हैं, जिनके शत्रु होते हैं, जो सांसारिक रागरंग आदि में लिप्त हैं, वे कुदेव सम्यग्दृष्टि के लिए उपास्य एवं शरण्य नहीं हो सकते।३ १. दसविहे मिच्छत्ते म. तं.-अधम्मे धम्मसण्णा. इत्यादि पाठ। __ -स्थानांगसूत्र स्था. १0, सू. ९९३ २. इन मूढ़ताओं का लक्षण आगे देखें रत्नकरण्डक श्रावकाचार में भी इनका उल्लेख है। ३. (क) मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्युक्तः सार्वज्ञ-सम्पदा। शास्ति मुक्तिपथं भव्यान् योऽसावाप्तो जगत्पतिः॥ -अनगार धर्मामृत, श्लो. १४ (ख) दिव्यौदारिकदेहस्थो धौत-घातिचतुष्टयः। ज्ञान-दृग-वीर्य-सौख्याढ्यः, सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः॥ -लाटी संहिता, सर्ग ४/१३९ (ग) देखें-जैनतत्त्वप्रकाश में १८ दोषों से रहित अर्हन्त का वर्णन (घ) योगशास्त्र प्र. २, श्लो. ६-७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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