SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार * ४०५ ॐ से जीव को मुक्त होने के लिए हैं। सम्यग्दृष्टि-संवर-साधक प्रति क्षण इन तत्त्वों का सम्प्रेक्षण-अनुप्रेक्षण करता रहेगा, तभी वह संवर को सुरक्षित रख सकेगा। . बहुत से स्थूलदृष्टि लोग पुण्य को ही धर्म समझने लगते हैं। पुण्य शुभ कर्मों का आस्रव और बन्धरूप है, जबकि धर्म कर्मक्षयरूप है। पुण्य संसार का मार्ग है, जबकि धर्म मोक्ष का मार्ग है। परन्तु धर्म के अहिंसा-सत्यादि या क्षमादि तथा तप, संयम आदि अंगों का आचरण भी सांसारिक कामना-नामनावश किये जाने पर वे भी पुण्य, पाप या अधर्म बन सकते हैं। सम्यक्त्व-संवर-साधक को यह विवेक अवश्य रखना है। स्थानांग-सूचित मिथ्यात्व के दस भेदों में प्रथम-द्वितीय भेद हैं-जीव को अजीव और अजीव को जीव समझना-मानना। सम्यक्त्व-संवर के साधक को जो प्रत्यक्ष जीव दिखाई देते हैं-द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक, उनके विषय में कदाचित् शंका न हो, किन्तु पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक जो पाँच एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं, वे सर्वज्ञ प्ररूपति हैं, उनको भी हमारी तरह सुख-दुःखादि का संवेदन होता है, भले ही उनकी चेतना मूर्छित हो, अविकसित हो। मगर प्रत्यक्ष न दिखाई देने के कारण उनके विषय में शंका करना, उन्हें न मानना, उनकी अवज्ञा करना, सम्यक्त्व-संवर-साधक के लिए कथमपि उचित नहीं है। भगवान ने कहा है-“उनकी अवज्ञा या अभ्याख्यान या अपलाप करना अपनी आत्मा की अवज्ञा करना है।" अतः एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की. आशातना, अवज्ञा या उपेक्षा करना सम्यक्त्व में बाधक है। इसी प्रकार अण्डे, माँस, मछली. आदि में जीव को अजीव मानना तथा अजीव को भी अन्धविश्वासवश जीव मानना, अजीव को देखकर मन में काम, क्रोध, लोभ आदि विकारवश होना, धन तथा भोगोपभोग के निर्जीव साधनों को जीव की तरह नित्य, अविनाशी मानकर उनके इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग में राग-द्वेष, आसक्ति-घृणा आदि करना, ये सब . सम्यक्त्व-दोष हैं। इसी प्रकार धनादि को धर्म, पुण्य का कारण मानकर येन-केन-प्रकारेण अन्याय, अनीति, पापकर्म आदि का आचरण करना-कराना भी मिथ्यात्व है। पशुबलि, माँस, मद्य आदि के सेवन को एवं अन्य हिंसादिकारक या अन्ध-विश्वासकारक कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों को धर्म मानना और उनको चलाना। गाँजा, भाँग, शराब आदि नशीली चीजों का या अनाचार का सेवन १. (क) जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ॥ -आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. ३ ' (ख) पाण-भूय-जीव-सत्ताणं आसायणाए। -आवश्यकसूत्र में तैंतीस आशातना पाठ
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy