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________________ ॐ ४०४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * मुख्यतया जीवतत्त्व (आत्मा) को ही प्रधानता दी जानी चाहिए। जीव (आत्मा) तत्त्व पर इसलिए सतर्कतापूर्वक विचार करना चाहिए कि मूलतः ये शेष ८ तत्त्व जीव के कर्ममुक्तिरूप मोक्ष के साधक और बाधक के रूप में बताये गये हैं। यदि आत्मा को अन्य दर्शनों की मान्यता की तरह कूटस्थ नित्य या एकान्त अनित्य अथवा क्षणिक माना जायेगा तो उसके धर्म, पुण्य, संवर, निर्जरा आदि की साधना निरर्थक हो जायेगी। इसीलिए जैनदर्शन ने आत्मा (जीव) को परिणामी नित्य माना है। शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से आत्मा नित्य है, किन्तु कर्मपुद्गलों से सम्बद्ध होने के कारण वह नाना गतियों और योनियों में भटकती है। किन्तु अपनी इस संसार-यात्रा को वह संवर, निर्जरा एवं धर्म की साधना से सीमित करते-करते एक दिन पूर्ण शुद्ध सर्वकर्ममुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकती है। इसलिए आत्मा को नित्य मानते हुए भी उसके बीच की संसार-यात्रा के लिए परिणामी भी मानना आवश्यक है। अतः आत्मा के इस परिणामी नित्य सिद्धान्तानुसार ‘आचारांगसूत्र' में दिये गये चिन्तन निर्देश के अनुसार व्यवहार-सम्यक्त्व-संवर-साधक को प्रतिदिन यह जानना और चिन्तन करना आवश्यक है-मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मुझे मनुष्यजन्मादि कैसे प्राप्त हुए हैं ? मैं आत्मा हूँ या शरीरादि ? मेरा असली स्वरूप क्या है? अब मुझे कौन-सा पुरुषार्थ करना चाहिए, जिससे यह कर्मोपाधिक भवभ्रमण मिटे? क्योंकि आत्मा को मानने के साथ ही इसके पूर्ण शुद्ध रूप परमात्मतत्त्व को तथा अशुद्धता के कारण होने वाली शुभ-अशुभ कर्मोपाधिक दशाओं को भी मानना जरूरी है। अतः आत्मा की सर्वांगीण दशाओं को मानने के साथ ही पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, इहलोक-परलोक (चारगतिरूप लोक) तथा इन स्थितियों के होने में कारणभूत विविध क्रियाओं, शुभ-अशुभ योग और शुद्धोपयोग आदि बातों को मानना आवश्यक हो जाता है। इसलिए बन्ध, आस्रव और पाप ये तीन जीव के कर्मबन्ध के स्रोत हेय हैं, पुण्य भी कथंचित् हेय है, उपादेय भी। अजीव से तो जीव का सम्बन्ध कर्मोपाधिक है। उसे जानना भी है, यथाशक्ति यथावसर राग-द्वेष, कषायादिवश लिप्त नहीं होना है, जहाँ तक हो सके उससे अलिप्त रहना है। संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये तीनों तत्त्व कर्मबन्ध से कर्मसंयोग १. (क) इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ, तं पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। (ख) के अहं आसी? के वा इओ चुए, इह पेच्चा भविस्सामि। (ग) एवमेगेसिं जं णायं भवइ-अस्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोऽहं। (घ) आयावाई लोयावाई कम्मावाई किरियावाई। -आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. १, सू. १, २, ४, ५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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