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ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ४०३ ॐ
अपनी आत्मा को शुद्ध स्वच्छ रखता है, निर्मल ज्ञानधारा में प्रवाहित रखता है। ऐसे आत्म-दृष्टि-परायण या आत्म-दृष्टि से अभ्यस्त सम्यक्त्व-संवर-साधक के समक्ष शरीर और आत्मा दोनों में से किसी एक की सुरक्षा और शुद्धता का प्रश्न हो, वहाँ वह आत्मा की रक्षा और शुद्धता को प्राथमिकता देता है। ऐसा साधक चाहे समूह में हो, एकान्त में हो, बड़े से बड़े भय या प्रलोभन के अवसरों पर भी वह विचलित न होकर आत्मा की शुद्धता और सुरक्षा बरकरार रखता है। कामविजेता स्थूलिभद्र मुनि ऐसे ही आत्म-दृष्टि-परायण थे। पाटलिपुत्र में कोशावेश्या के यहाँ उसकी रंगशाला में मोहक, मादक और कामोत्तेजक वातावरण में रहकर भी वे शुद्ध ब्रह्म (आत्मा) में ही लीन रहे, उसी में विचरण करते रहे। आत्मा को उन्होंने जरा भी कामवासना से विचलित-स्खलित नहीं किया। वे जाग्रत एवं स्वस्थ, शान्त आत्म-दृष्टि-सम्पन्न सम्यक्त्व-संवर के सफल साधक सिद्ध हुए। अतः निश्चयसम्यक्त्व-संवर के साधक को भी ऐसे विकट प्रसंगों में आत्मा के शुद्धोपयोग की ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहिए।
(११) ऐसे निश्चय-सम्यक्त्व-संवर को जब शुद्ध आत्मानुभव हो जाता है, तो उसे अन्तर में ही आत्मिक-सुख का रसास्वाद होता है, वह बाह्य पौद्गलिक वैषयिक सुखों से विरक्त हो जाता है। 'बृहद्रव्यसंग्रह' की टीका में निश्चयसम्यक्त्व का यही लक्षण दिया गया है-"मैं रागादि विकल्पों से रहित चित्-चमत्कार भावों से समुत्पन्न मधुर रस के आस्वाद (आत्मिक) सुख का धारक हूँ।" इस प्रकार का शुद्धोपयोगरूप चिन्तन निश्चयरूप सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार सुई के चुभने का प्रत्यक्ष वेदन होता है, उसी प्रकार का आत्मिक-सुख का अनुभव (वेदन) सम्यक्त्व-साधक को होता है।२ . __ये और ऐसे ही कुछ अन्य मुद्दे हैं, जिन पर निश्चय-सम्यक्त्व-संवर के साधक को जागरूक रहना है और सम्यक्त्व को मलिन, विचलित और शिथिल होने से बचाना है।
.. व्यवहार-सम्यक्त्व-संवर की साधना में सावधानी अब व्यवहार-सम्यक्त्व-संवर की साधना के विषय में थोड़ा-सा विचार कर लें कि उसमें साधक को कहाँ-कहाँ सावधानी रखनी है? तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन में जो वीतराग प्ररूपित नौ तत्त्वों पर श्रद्धा रखने की बात है, वहाँ भी १. (क) “सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण
(ख) परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८-९ से संक्षिप्त २. रागादि-विकल्पोपाधिरहित-चिच्चमत्कार-भावोत्पन्न-मधुर-रसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम्।
-बृहद्रव्यसंग्रह टीका ४0/१६३/१०