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________________ ॐ ४०२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 अविचलित सम्यक् विश्वास (श्रद्धा) के कारण उसके ज्ञान के आवरण सर्वथा दूर हो गये, भेदविज्ञान उसके तन-मन-नयन में परिनिष्ठित हो गया, उसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया। निश्चय सम्यग्दृष्टि के आत्मा के साथ अभिन्न ज्ञान-गुण पर अटल अकम्प सम्यक् विश्वास का ही यह परिणाम है। (८) 'बृहद्रव्यसंग्रह' के अनुसार-निश्चय-सम्यग्दर्शन का एक लक्षण है“नित्यनिरंजन शुद्ध-बुद्ध आत्म-तत्त्व के प्रति सम्यक् निश्चयपूर्वक श्रद्धान हो जाना। ऐसे सम्यक्त्व-संवर के साधक को शरीर से पृथक् आत्मा के अजर-अमरअविनाशित्व की दृढ़ प्रतीति हो जाती है, तब वह मृत्यु से भी नहीं घबराता। उसे आत्मा की शुद्ध उपलब्धि हो जाती है, वह शुद्धोपयोग में ही रमण करता है, उसकी ज्ञान-चेतना सक्रिय रहती है। मैं शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यघन आत्मा हूँ, ये देहादि मेरे नहीं हैं, ये मोह, माया, ममत्व आदि अज्ञानता, मिथ्यात्व आदि के तथा आत्मा की विभाव परिणति के फल हैं।" इस प्रकार उसकी मोह निद्रा उड़ जाती है। कामदेव श्रमणोपासक को शुद्ध आत्मा की प्रतीति हो गई थी। फलतः वह सम्यक्त्व-संवर की देव द्वारा ली गई कठोर परीक्षा में भी सफल रहा। भयंकर उपसर्गों के बीच भी उसने शुद्ध आत्मा के प्रति अटल निष्ठा-श्रद्धा को डिगने नहीं दिया। ऐसी ही स्थिति निश्चय-सम्यक्त्व-संवर के साधक की होनी चाहिए।, “आत्मा का आत्मा में रत-लीन होना ही निश्चय सम्यग्यदृष्टि हो जाना है।"२ (९) वृद्धवादी आचार्य का जीवन भी शुद्ध आत्म-स्वरूप की उपलब्धि-प्रतीति का चमत्कार है। अपने गुरु की आत्म-बोधक आत्मोपलब्धि-प्रेरक वाणी सुनकर वे वृद्धावस्था में मंदबुद्धि होते हुए भी आत्म-विश्वासपूर्वक जुट गये अध्ययन मेंज्ञानाभ्यास में। अपनी आत्मा की ज्ञान-शक्ति पर अटल विश्वास होने से वे एक दिन महाविद्वान् बन गये। इस प्रकार के शुद्ध आत्म-स्वरूप का निश्चय ही निश्चयसम्यग्दर्शन की भूमिका है। (१०) निश्चय-सम्यक्त्व-संवर की साधना इस प्रकार की जागरूक आत्म-बोध की स्थिति से चमक उठती है। फिर वह अपनी शुद्ध आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन करने लगता है। साथ ही आत्म-स्वरूप निश्चयी साधक सर्वत्र सभी प्रसंगों में १. देखें-विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में माष-तुष का दृष्टान्त २. (क) बृहद्र्व्य संग्रह की गा. ३९ की टीका (ख) देखें-उपासकदशांगसूत्र, अ. २ में कामदेव श्रावक का जीवनवृत्त (ग) अप्पा अप्पम्मि रओ, समाइट्ठी हवेइ फुड जीवो। __ -जिनसूत्र (आ. रजनीश), भा. २, गा. ६९ ३. देखें-वृद्धवादी आचार्य का वृत्तान्त-प्रबन्धचिन्तामणि
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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