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________________ सम्यक्त्व - संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ४०१ टीका' में कहा है-“इस प्रकार के सम्यग्दृष्टि के नित्य ज्ञान और वैराग्य की शक्ति बढ़ती है। 9 (६) निश्चय सम्यग्दृष्टि वस्तु को जैसी है, वैसी ही, उसी रूप में देखता है, उसकी दृष्टि अविपरीत होती है। उसके परिणाम मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्नं विशुद्ध होते हैं। जिससे उसकी दृष्टि आत्मलर्क्ष्य या मोक्षलक्ष्यी होती है। सम्यक्त्व-संवर के साधक में यदि ऐसी श्रद्धा - मान्यता में राग-द्वेष, अहंकार, स्वार्थ, लोभ, कपट आदि विकार घुस जाते हैं, तो उसकी दृष्टि हठाग्रहगृहीत मिथ्या- विपरीत - हो जाती है । ' अमितगति श्रावकाचार' के अनुसारइस प्रकार के मिथ्यात्व के परिणाम से उसका विवेक नष्ट हो जाता है। मूढ़ता उत्पन्न हो जाती है। उस मिथ्यात्व का भयंकर दुःखद परिणाम दुर्गति के सिवाय और क्या हो सकता है ? पर्वत और नारद दोनों सहपाठियों में 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य के अर्थ पर विवाद छिड़ा । पर्वत ने जान-बूझकर अहंकर एवं हठाग्रहवश नारद के मना करने पर भी "बकरों को होम कर यज्ञ करना चाहिए", इस गलत अर्थ का प्रतिपादन किया । फलतः आत्मौपम्यदृष्टि के विरुद्ध होने एवं असत्य की परम्परा चलाने के कारण पर्वत को नरक यात्रा करनी पड़ी । ३ अतः निश्चयसम्यक्त्व-संवर के साधक को ऐसी भयंकर असत्य एवं हिंसामूलक प्ररूपणा के कारण सम्यक्त्व से सर्वथा भ्रष्ट, घोर मिथ्यात्वग्रस्त होने के परिणामों से बचना चाहिए। (७) निश्चय-सम्यग्दर्शन-सवंर के साधक के जीवन में किसी पूर्वबद्ध अशुभ कर्म के उदयवश अत्यन्त बुद्धिमन्दता हो जाने या भयंकर विपन्नता आ जाने पर भी वह अपने आत्मलक्ष्यी सम्यक् विश्वास को किसी भी प्रकार से डिगने नहीं देता, वह ऐसी दुःस्थिति में भी आर्त्तध्यान करके खिन्न और उदास नहीं होता । 'मासतुष मुनि' का ज्वलन्त उदाहरण इस सम्बन्ध में विचारणीय है । वह बुद्धिमन्दता के कारण' ‘मा रुष मा तुष' इतना - सा गुरुप्रदत्त सूत्र भी याद न रख सका, किन्तु आत्मा में निहित, किन्तु सुषुप्त अनन्त विशुद्ध ज्ञान के प्रति उसका अटल विश्वास होने से 'मा रुष मा तुष' के बदले 'माष- तुष' गलत रटता रहा। फलतः इस - पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध, श्लो. ७७१ 9. (क) रागांशैर्बन्धः स्यान्नारागांशैः कदाचन । (ख) सम्यग्दृष्टेर्भवति नित्यं ज्ञान-वैराग्यशक्तिः । 1 - समयसार आत्मख्याति, गा. १९७, कलश १३६ २. मिथ्यात्व-मोहनीय-क्षयोपशमादि- समुत्थे (विशुद्ध) जीव परिणामे । - प्रश्नव्याकरणसूत्र टीका, संवरद्वार ४ ३. देखें- योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य) की स्वोपज्ञ टीका में यह उदाहरण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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