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४०० कर्मविज्ञान : भाग ६
आस्रव (पापकर्म) अर्जित कर लेगा । अतः निश्चय - संवर - साधक के हेयोपादेय को नापने के पैमाने या तौंलने के बाँट सामान्य लौकिक या व्यावहारिक दृष्टि वाले लोगों के-से नहीं होते, अपितु वह आत्म-कल्याण, आत्म-विकास या आत्म- रमण के गज से तथा आत्मलक्ष्यता के बाँट से हेयोपादेय को नापता - तौलता है । वह पुण्य - प्रकर्ष से प्राप्त भोगोपभोग सामग्री को या इन्द्रिय-विषयों को भी सामान्य लौकिक लोगों की तरह सर्वथा उपादेय नहीं मानता। वह भोजन, वस्त्र, मकान आदि जीवन निर्वाह के लिए अत्यावश्यक सामग्री को ही अनिवार्य आवश्यक की कोटि में रखता है, उपादेय पदार्थों की कोटि में नहीं । सम्यक्त्व प्राप्त होते ही समस्त पर- द्रव्यों को हेय तथा निज स्वभाव को स्वरूप को उपादेय जानता - मानता है । तथारूप श्रद्धान भी करता है, मिथ्याभाव को मिथ्या समझता है, किन्तु चारित्र मोहनीय कर्म का उदय प्रबल होने से तथा उसका उतना क्षयोपशम न होने से उसमें पर-द्रव्यों को सर्वथा छोड़कर पूर्ण चारित्र अंगीकार करने की शक्ति नहीं होती । 'धर्मसंग्रह' तथा 'दर्शनपाहुड' के. अनुसार - " जिसका जितना आचरण हो सके, उतना करे, जिसका आचरण न हो सके, उस पर श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान रखे । श्रद्धा रखता हुआ जीव भी जरा और मरण से रहित स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होता है । " " आशय यह है सम्यग्दृष्टि जीव यथाशक्ति मार्गानुसारी, देशविरति या सर्वविरति के गुणों को यथाशक्ति अपनाता है। जितनी शक्ति होती है, उतना तो आचरण अपनी-अपनी भूमिका में रहता हुआ करता है, बाकी के विषय में श्रद्धान करता है । पुण्योदय से प्राप्त साधनों को भी वह पर-भाव समझकर उनमें राग या आसक्ति नहीं करेगा। जहाँ तक हो सके उदासीनभाव से ही वह उनका उपयोग करेगा और चतुर्थ गुणस्थान में भी सबको क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता, क्षयोपशम सम्यक्त्व या उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है। पूर्ण निर्दोष सम्यक्त्व तथा पूर्ण निर्दोष सम्यक्चारित्र भी सबको प्राप्त नहीं होता। उसमें भी तारतम्य रहता है । २
यदि वह इन्हें उपादेय समझकर आसक्तिपूर्वक उपभोग करेगा तो वह आत्मलक्षी दृष्टि से भ्रष्ट हो जायेगा । जिस पदार्थ के रागादिपूर्वक ग्रहण करने से आभा और अधिक कर्मबन्ध में पड़ती हो, उसका विकास रुकता हो, उसे वह उपादेय नहीं मानेगा। क्योंकि 'पंचाध्यायी' (उ.) के अनुसार - " चूँकि रागांशों से बन्ध होता है, रागांशों से रहित हो तो बन्ध कदापि नहीं होता।” 'समयसार
१. जं सक्कइ तं कीरइ, जं न सक्कइ तयंमि (तं च) सद्दहणं । सद्दहमाणो जीवो वच्चइ अयरामरं ठाणं ॥
(केवलिजिणे हिं भणियं सहमाणस्स सम्मत्तं )
२. 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण, पृ. १९७
- दर्शनपाहुड, गा. २२
- धर्मसंग्रह, अ. २/ २१
- दर्शनपाहुड, गा. २२