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________________ * २२ कर्मविज्ञान : भाग ६ में इतनी वृद्धि हो जाती है कि वह बड़े से बड़े कष्ट को कष्ट न मानकर प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार करता है । किन्तु धर्मश्रद्धा से रहित अधार्मिक व्यक्ति क्रोध, अहंकार, लोभ, द्वेष और आसक्ति के वश भले ही मरने-मारने को तैयार हो जाय, किन्तु उसके अन्तःकरण में तो मृत्यु-भय, प्राण-रक्षा की चिन्ता तथा इष्ट के वियोग से बचने की और अनिष्ट के संयोग से दूर रहने की वृत्ति रहती है । इसी कारण वह हथियार, शस्त्र - अस्त्र तथा पहरेदारों को साथ लेकर या रखकर चलता या रहता है। एक के जीवन में धर्मनिष्ठावश समता और क्षमता है, जबकि दूसरे के जीवन में शरीरादि के प्रति ममता और कायरता है। इसी कारण एक संवर-निर्जरारूप धर्मनिष्ठ है, तो दूसरा आम्रव-बन्धरूप कर्मतत्पर है। दोनों में अन्तर का जायजा लिया जाए तो धर्म में जिसका विश्वास या अभ्यास नहीं है, व्यक्ति का अपने शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थ एवं इष्ट-संयोग व अनिष्ट-वियोग के प्रति ममता, मूर्च्छा, आसक्ति का भाव प्रबल होता है। इसके विपरीत, जिसके जीवन में धर्म के प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं निष्ठा होती है, उसका शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध परिवारादि सजीव तथा धन, सम्पत्ति, जमीन तथा मकान आदि निर्जीव पदार्थों के प्रति समताभाव होता है। धार्मिक और अधार्मिक दोनों में सबसे बड़ा अन्तर है - समता और ममता का । एक में धर्मचेतना है, इसलिए समताभाव का विकास पाया जाता है, जबकि दूसरे में कर्मचेतना है, इसलिए शुभाशुभ = पुण्य-पापकर्म की वृत्ति होने से ममताभाव का विकास होता है।' यही अन्तर धर्म और कर्म का समझना चाहिए। उस शुद्ध धर्म का कार्य कर्म के कार्य से भिन्न है धर्म का कार्य कषायादि के पुराने गलत संस्कारों या बुराई के संस्कारों को क्षीण करना है। चेतना पर आए हुए स्वार्थ, लोभ, भय, प्रलोभन आदि के आवरणों को हटाना है । चित्त पर जमे हुए ममकार, अहंकार या अहंता - ममता के मैल से मुक्ति दिलाकर चित्त को निर्मल बनाना है। मूर्च्छा और लालसा को मिटाना है। क्रोध, लोभ, मूर्च्छा-ममता, तृष्णा, ईर्ष्या आदि वृत्तियों का परिष्कार करना है । भावों का शोधन करना है। धर्म का कार्य धन, राज्य, स्त्री-पुत्रादि की प्राप्ति कराना या पद, प्रतिष्ठा, यशकीर्ति अथवा सुख-सुविधा या विषयभोग उपलब्ध कराना नहीं है। यदि तथाकथित धर्म का आचरण करने वाला या नैतिकतापूर्वक जीवनयापन करने वाला यह सोचता है कि मैंने इतना - इतना धर्माचरण किया, किन्तु पूर्वोक्त कार्य नहीं हुए, मैं घाटे में रहा, तो कहना चाहिए कि उस व्यक्ति ने धर्म को समझा ही नहीं, शुद्ध धर्म का आचरण किया ही नहीं । 'दशवैकालिकसूत्र' में तो स्पष्ट कहा 'अपने घर में' से भावांश ग्रहण, पृ. १७६ १.
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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