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ॐ धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव * २१ 8
फिर भी क्षमा आदि दशविध धर्मों का पालन, द्वादश अनुप्रेक्षा, मैत्री आदि चार भावना, बाह्य आभ्यन्तर तप, अहिंसादि व्रतों का पालन, छोटे-बड़े त्याग-प्रत्याख्यान आदि संवर धर्म और परीषह जप, उपसर्ग सहन आदि निर्जरा धर्म का आचरण करता रहता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो धर्मात्मा व्यक्ति धर्मनिष्ठ होकर आतापनादि या तपश्चर्यादि के कष्टों को निमंत्रण देता है, कष्टों को समभाव से सहता है। पूर्वबद्ध अशुभ कर्म के फलस्वरूप कष्ट आने पर वह निमित्त को, भगवान को या धर्म को नहीं कोसता, वह स्वयं को ही उस कष्ट के लिए उत्तरदायी मानता है, स्वयं ही शान्ति से उस कष्ट को भोग लेता है। इसके विपरीत धर्म नहीं करने वाला दुःखों के आते ही घबरा जाता है, उसका खून सूखने लगता है, चेहरा उतर जाता है, साथ ही वह धर्म, भगवान, धर्म-गुरु तथा अन्यान्य निमित्तों को गालियाँ देने लगता है, उस कष्ट के लिए खुद को उत्तरदायी न मानकर दूसरों को उत्तरदायी मानता है। कोई धर्मनिष्ठ व्यक्ति तो इतना आत्म-बली होता है कि चाहे कितने ही घोर उपसर्ग, परीषह, कष्ट या संकट आएँ, चाहे उसे फाँसी या शूली पर भी चढ़ा दे अथवा मारणान्तिक कष्ट भी आ पड़े, फिर भी वह समता और शान्ति के साथ उसे सहन करता है, बदले में किसी प्रकार का द्वेष-रोष या प्रतिकार नहीं करता।
जिनकल्पी मुनि की साधना बड़ी कठोर होती है। वह विचरण करते हुए जा रहा है, उस समय यदि सामने से सिंह आ रहा है या और कोई हिंस्र प्राणी आ रहा है, तो भी वह अपने पथ से हटेगा नहीं। वह उस खतरे से डरकर न तो भागेगा, न ही सामने वाले हिंस्र प्राणी को डरा-धमकाकर या प्रहार करके हटाने का प्रयास करेगा। यह साहस की पराकाष्ठा है, जो कर्मों से मुक्ति के लिए शुद्ध धर्म-साधना में सुदृढ़ मुनि में होती है। उसमें धैर्य और साहस कूट-कूटकर भरा होता है। इसलिए वह ऐसे मारणान्तिक कष्ट = उपसर्ग (संकट) के समय मृत्यु को भी सीधा निमंत्रण दे देता है। समाधिमरण के लिए संलेखना-संथारा करने वाला साधक हँसते-हँसते मृत्यु को वरण कर लेता है। धैर्य, शान्ति, स्वस्थता, समाधि
और सन्तुलन का प्रतीक होता है-धर्मनिष्ठ व्यक्ति, कर्ममुक्ति के लिए कटिबद्ध संवर-निर्जरा-साधक। यही धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति का अन्तर है। धार्मिक व्यक्ति कर्मों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करता है, जबकि अधार्मिक व्यक्ति कर्मों से अधिकाधिक जकड़ता जाता है। .. कष्ट और संकट अधार्मिक व्यक्ति की तरह धार्मिक व्यक्ति पर भी आता है। दोनों में अन्तर इतना ही है धार्मिक व्यक्ति में सहिष्णुता, सहनशीलता, बर्दाश्त करने का मनोबल तथा सहन करने की क्षमता में एवं कष्ट सहन करने के अभ्यास