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________________ * सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ३९५ * चल सकता, सभी साधक उच्च भूमिका वाले नहीं होते, इसीलिए प्राथमिक भूमिका के सम्यक्त्व-साधकों को बताया गया कि अरिहंत देव पर, निर्ग्रन्थ गुरु पर और वीतराग-प्ररूपित धर्म पर या जिनोपदिष्ट शास्त्र (आगम) पर श्रद्धा करो। जो महान् आत्मा अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति की उच्चतम भूमिका-आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था पर पहुंच चुके हैं, वे आदर्श वीतरागदेव हैं, जो उस ओर स्वयं बढ़ रहे हैं, दूसरों को बढ़ने के लिए उपदेश देते हैं, वे मार्गदर्शक निर्ग्रन्थ गुरु हैं और घातिकर्म क्षय करके उच्चतम भूमिका पर पहुँचे हुए सफल महापुरुषों ने अपने पूर्ण अनुभव से जो कल्याणकारी तत्त्वरूप पथ बताये हैं, वे धर्म हैं। इन्हीं तीन तत्त्वों को जैनधर्म सच्चे देव, सद्गुरु और सद्धर्म कहता है। देवतत्त्व साधना का आदर्श उपस्थित करता है; गुरुतत्त्व साधना के यथार्थ मार्ग पर स्वयं चलता और दूसरों को भी उनकी भूमिका के अनुरूप सन्मार्ग बताता है, इधर-उधर विचलित होने से रोकता है, शिथिलता आने पर सावधान करके आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, तीव्र राग-द्वेष-कषाय आदि दोषों का शमन-दमनवमन करने का उपाय बताता है। तीसरा धर्मतत्त्व आत्मा के विकास और शोधन के लिए मार्ग है, मोक्ष-सुख को प्राप्त कराने का पथ है, स्व-रूप में स्थिर होने का . राजमार्ग है। वह भी वीतराग-प्ररूपित ही उपादेय है। ये तीनों श्रद्धेय तत्त्व प्राथमिक सम्यक्त्वी के लिए आलम्बनरूप हैं। . इस दृष्टि से देव, गुरु और धर्म को पूर्वोक्त कसौटी पर कसने पर जो सही उतरे, उसे जानना-मानना, उस पर श्रद्धा-निष्ठापूर्वक दृढ़ रहना, चल-मल-अगाढ़ दोष न आने देना व्यवहार सम्यक्त्व है। .. . सम्यक्त्व-संवर की साधना के दो रूप वास्तव में “स्व (निज आत्मा) और पर (स्वात्मभिन्न समस्त बाह्य पदार्थपर-भाव या विभाव) के विभाग (भेद) के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है।" इसलिए सम्यक्त्व-संवर के मुख्यतया दो रूप शास्त्रकारों ने यत्र-तत्र प्रस्तुत किये हैं(१) निश्चय और व्यवहार-सम्यग्दर्शन के स्वरूप के अनुसार अपनी श्रद्धा, भक्ति, रुचि, दृष्टि, प्रतीति और अनुभूति करना या रखना। इनके पूर्वोक्त लक्षणों से बाहर जहाँ भी वृत्ति-प्रवृत्ति जाती हो, वहाँ उसे तुरन्त ज्ञानबल से, देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के बल से रोकना सम्यक्त्व-संवर का एक रूप है। (२) दूसरा रूप है-सभी प्रकार के मिथ्यात्व-आम्रवों का निरोध करना। ये दो ही सम्यक्त्व-संवर की सक्रिय साधना के प्रमुख रूप हैं। इन्हीं दोनों रूपों पर सम्यक्त्व-साधना की उपलब्धि, स्थिरता, सुरक्षा, पुष्टि, वृद्धि, लक्ष्यसिद्धि, विशुद्धि और दृढ़ता निर्भर है। १. 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भाव ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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