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________________ ॐ ३९६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ * अब हम क्रमशः उन मुद्दों को सर्वप्रथम प्रस्तुत करेंगे कि सम्यक्त्व के दोनों लक्षणों के अनुसार चलने-वृत्ति-प्रवृत्ति करने में कहाँ-कहाँ अवरोध, विरोध, स्खलन, विचलन, शैथिल्य या अनुत्साह पैदा होता है ? निश्चय-सम्यक्त्व-संवर की साधना (१) सर्वप्रथम निश्चय-सम्यक्त्व-संवर को लीजिये। निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन आत्मा को मोक्ष (कर्ममुक्ति) पहुँचाने वाला साधन है। वह आत्मा में ही रहता है, इसलिए जहाँ भी आत्म-हित विरोधी शुभ कर्म (पुण्य) बन्धकरी, तीव्र राग-द्वेषकषायवर्द्धिनी प्रवृत्ति एवं शुद्ध आत्मा के प्रति श्रद्धा-निष्ठा में खतरा देखें, वहाँ तुरन्त सँभलकर ब्रेक लगाये, तभी निश्चय-सम्यक्त्व-संवर के मार्ग पर सही कदम पड़ सकता है। (२) सम्यक्त्व-संवर-साधक जब यह निश्चय कर लेता है कि बाहर का धन, वैभव, सुख-साधन, परिवार, समाज, राष्ट्र, मकान, व्यापार आदि ही संसार नहीं, यह अपने आप में बन्धनकर्ता नहीं, मेरे अन्दर का राग-द्वेष-कषाय-कामना वासनात्मक संसार ही जन्म-मरणादिरूप वास्तविक संसार है, वही बन्धनकर्ता है। इसलिए पूर्वोक्त बाह्य संसार को छोड़ देने या अल्प कर देने पर भी यदि मन में कामना-वासना, राग-द्वेष-कषाय आदि की उधेड़बुन चलाता है, तो वह अपने निश्चय-सम्यक्त्व-संवर से भ्रष्ट या विचलित होता है। उसका वह आन्तरिक संसार उसके कर्मबन्धन को बढ़ाता है। जब तक मोक्ष में नहीं पहुँचते हैं, तब तक साधुवर्ग और गृहस्थ श्रावकवर्ग (सम्यग्दृष्टि या व्रती) दोनों ही बाह्य संसार में हैं। परन्तु दोनों ही वर्ग के निश्चयसम्यक्त्व-संवर के साधकों के लिए श्रमण भगवान महावीर ने सुन्दर जीवन-दर्शन दिया है “न लिप्पए भववारि-मझे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।" -वह संसार में रहता हुआ भी संसार सागर के राग-द्वेष-मोह-कषायादि जल . (पंक) से लिप्त नहीं होता, जैसे कमलपत्र जलाशय में रहता हुआ भी जल से अलिप्त रहता है। -आचारांग., सू.१ १. (क) 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण (ख) जे गुणे से आवट्टे। (ग) कामनां हृदये वासः संसारः परिकीर्तितः। (घ) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च जाइ-मरणस्स मूलं। -उत्तरा., अ. ३२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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