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३९४ कर्मविज्ञान : भाग ६
इष्टदेव (ईश्वर, गॉड, खुदा, अल्ला, सिद्ध- अरिहंत, बुद्ध, परमात्मा आदि), गुरु
( पादरी, प्रीस्ट, मौलवी, फकीर, साधु, संन्यासी, अवतार, वाहे गुरु, निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षु आदि) और धर्म (वैदिक, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, हिन्दू, सिक्ख, सनातन आदि) पर श्रद्धा, विश्वास रखते हैं और समय आने पर कई कट्टरपंथी तो उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं, तो क्या उनकी यह दृष्टि श्रद्धा, रुचि या विश्वास, भक्ति सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व है ?
जैनदर्शन का किसी भी नाम से कोई विरोध नहीं है । वह गुणों का पुजारी है। चूँकि सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व भी आत्मा के निजी गुणों को प्राप्त करने, विकास करने तथा कर्मों से मुक्तिपथ पर आगे बढ़ाने के लिए दिशादर्शन कराने का - मोक्षमार्ग का एक साधन है । इस दृष्टि से देव, गुरु और धर्म के भी जैनदर्शन ने अमुक गुण बताये हैं, उन गुणों में जो फिट होता हो, उसे मानने में कोई ऐतराज नहीं है। किन्तु जहाँ आत्मा - अनात्मा का वास्तविक ज्ञान नहीं हो, जीव-अजीव को, आत्मा के पूर्वजन्म-पुनर्जन्म का, नित्यानित्यत्व का शुभाशुभ कर्म का, हिंसादि पापकर्मों का तथा उनसे निवृत्ति का कोई चिन्तन, मनन, मार्गदर्शन या सिद्धान्त न हो, उस देव, गुरु, धर्म को जैनदर्शन मान्य नहीं करता। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा - "सच्चे देव में देवत्वबुद्धि, सच्चे गुरु में गुरुत्वबुद्धि और सद्धर्म में धर्मबुद्धि होना सम्यक्त्व कहलाता है।" पूज्यपाद आचार्य ने इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहा - " तदेव से बढ़कर कोई देव नहीं है, दया के बिना कोई धर्म नहीं है तथा तपःपरायण निर्ग्रन्थ साधु ही सच्चे गुरु हैं; इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान ही सम्यक्त्व का लक्षण है ।" इसी प्रकार 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया - "जो राग-द्वेषादि अठारह दोषों से रहित वीतराग को देव, सर्वजीवदया - परायण धर्म को श्रेष्ठ धर्म तथा निर्ग्रन्थ साधु को गुरु मानता है, वह स्पष्टतः सम्यग्यदृष्टि सम्यक्त्व है।"
देव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा क्यों और कैसे ?
व्यवहार-सम्यग्दर्शन का लक्षण केवल 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' कहने से आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने वाले सम्यक्त्व - संवर के साधक का काम नहीं
१. (क) या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः ।
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धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥ (ख) नास्त्यर्हतः परो देवो, धर्मो नास्ति दयां विना ।
तपः परं च नैर्ग्रन्थ्यमेतत् सम्यक्त्व - लक्षणम् ॥ (ग) णिज्जयदोर्स देवं, सव्वजीयाणं दयावरं धम्मं । वज्जियगंथं गुरुं जो मण्ण दि सो हु सद्दिट्ठी ॥
- योगशास्त्र २/२
- पू. पा. श्रावका. १४
- का. अ., गा. ३१७