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________________ * सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार * ३९३ * किया गया है-'जिणपण्णत्तं तत्तं' (जिनेन्द्र द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व) अथवा 'रुचिर्जिनोक्त तत्त्वेषु' (जिनोक्त तत्त्वों पर रुचि), 'जिणवरेहिंपण्णत्तं' (जिनवरों-वीतरागों द्वारा प्ररूपित या उपदिष्ट)। इससे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि ये सात या नौ तत्त्व, षटद्रव्य, पंचास्तिकाय, किन्हीं अल्पज्ञों द्वारा मनःकल्पित या मनगढन्त नहीं हैं, अठारह दोषरहित बारह गुण सहित वीतराग सर्वज्ञ आप्तपुरुषों द्वारा कथित, प्ररूपित अथवा उपदिष्ट हैं। इसलिए इनकी तत्त्वरूपता और प्रामाणिकता असंदिग्ध है। “क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ कदापि मिथ्या भाषण नहीं करते। इसलिए उनके वचन तथ्य-सत्यरूप होते हैं। वे यथार्थ वस्तुस्वरूप के द्रष्टा होते हैं।"१ ये सात या नौ तत्त्व इस प्रकार हैं-(१) जीव, (२) अजीव, (३) आम्रव, (४) बन्ध, (५) संवर, (६) निर्जरा, और (७) मोक्ष।२ ___पुण्य और पाप, ये दोनों शुभ-अशुभ आम्रवरूप होने पर भी पृथक् कथन करने पर नौ तत्त्व होते हैं। वीतराग सर्वज्ञ देवों ने इन्हें तत्त्वभूत इसलिए भी बताया है कि जीव तत्त्व को छोड़कर शेष तत्त्व आत्मा के विकास-ह्रास या शुद्धि-अशुद्धि या संसारहास-संसारवृद्धि में निमित्त कारण हैं-साधक-बाधक हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए ये सभी पदार्थ ज्ञेय हैं, इनमें से जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये उपादेय हैं तथा अजीव, आस्रव और बन्ध, ये तीन हेय हैं, पाप भी हेय है, पुण्य कथंचित् हेय है और कथंचित् उपादेय है। ये तत्त्वभूत पदार्थ जिस रूप में वीतराग सर्वज्ञों ने बताये हैं, उन्हें उसी रूप में जानना, मानना, उन पर आत्मलक्ष्यी श्रद्धा करना, अन्तःकरण से निश्चयपूर्वक श्रद्धा रुचिपूर्वक अनुभव करना ही व्यवहार-सम्यग्दर्शन है।३ देव, गुरु और धर्म तत्त्व : सच्चे-झूठे की पहचान ___ व्यवहार-सम्यक्त्व का दूसरा लक्षण है-देय, गुरु और धर्म पर श्रद्धा करना। इस पर प्रश्न होता है-विश्व में जितने भी धर्म-सम्प्रदाय हैं, उनके अनुयायी अपने-अपने सम्प्रदाय मत-पंथ द्वारा मान्य या अपने-अपने गुरुओं द्वारा बताये हुए १. वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ब्रुवते क्वचित् । ___ यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थ दर्शकम्॥ -आचारांग वृत्ति पत्र २0१ २. जीवाजीवासवबन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. १, सू. ४ ३. (क) जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव॥१४॥ तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियां ॥१५॥ -उत्तरा. २८/१४-१५ (ख) 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलम' (अशोक मुनि) से भावांश ग्रहण ।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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