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* सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार 8 ३९१ 8
करता है, तभी उस व्यक्ति को निश्चय-सम्यग्दृष्टि उपलब्ध होती है। ऐसी निश्चयसम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर व्यक्ति अन्तर्मुखी दृष्टि से वस्तुस्वरूप का शुद्ध दर्शन निश्चय या अनुभव कर सकता है। ऐसा निश्चय-सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर अपने कार्यकलाप, प्रवृत्ति, नियमोपनियम, क्रियाकाण्ड आदि के सम्बन्ध में झटपट निर्णय कर सकेगा कि ये मेरे आत्म-विकास के अनुरूप या आत्मलक्ष्यी-शुद्ध आत्म-स्वभाव के अनुरूप हैं या नहीं? यदि अन्तर्मुखी दृष्टि नहीं होगी तो मिथ्यात्व या अज्ञान के कल्मष के कारण आसक्ति-घृणा, राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता, द्रोह-मोह आदि उस पर छाये रहेंगे। फिर वहाँ शुद्ध आत्मोपलब्धि न होने से यथार्थ निर्णय या अनुभव नहीं होगा।
निश्चय-सम्यग्दर्शन : आत्मा में ही सीधा सम्बन्धित निश्चय-सम्यग्दर्शन के बिना किसी भी वस्तु का वास्तविक (मूल) रूप नहीं जाना जा सकता। क्योंकि वस्तु का मूल रूप तो उसका अन्तरंग ही होता है। दूसरी बात सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व को मोक्ष का साधन बताया गया है। बन्धन या मोक्ष, दोनों ही आत्मा से सम्बन्धित हैं। इसलिए सम्यग्दर्शन न तो शरीर का धर्म है, न इन्द्रियों का और न ही किसी जड़ भौतिक वस्तु का। वह तो आत्मा का ही भाव है। इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व आत्मा का अमूर्तिक गुण है। मोक्ष जब आत्म-स्वरूप है तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय भी निश्चयदृष्टि से आत्म-स्वरूप है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार-आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है। क्योंकि आत्मा रत्नत्रय के साथ तादात्म्य होकर ही शरीर में स्थित है।
निश्चय-सम्यग्दर्शन होने पर ही व्यवहार-सम्यग्दर्शन सफल निश्चय-सम्यग्दर्शन के लक्षणानुसार मूल में तो आत्मा के प्रति श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, विश्वास या विनिश्चय हो तभी देव, गुरु, धर्म, शास्त्र या तत्त्वों के प्रति श्रद्धानरूप व्यवहार-सम्यग्दर्शन सफल या कृतार्थ हो सकेगा। आत्म-स्वरूप की प्रतीति नहीं होगी तो आस्रव या बन्ध को कैसे छोड़ा जायेगा? संवर, निर्जरा और मोक्ष की साधना कैसे की जायेगी? आत्म-शक्तियों की पहचान नहीं हुई तो कर्म-बन्धनों को
-पंचाध्यायी उत्तरार्ध २१५
१. न्य स्यादात्मोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम्।
शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं, न चेत् शुद्धा, न सा सुहग्॥ २. (क) आत्मैव दर्शनज्ञानचारित्राण्यथवायतेः।
यत्तदात्मक एवैष शरीरमधितिष्ठति॥ (ख) अध्यात्मसार प्रबन्ध ६, अ. १८, श्लो. ३ (ग) आत्ममात्ररुचिः सम्यग्दर्शनं मोक्षहेतुकम्।
तद्विरुद्धमतिर्मिथ्या-दर्शनं भवहेतुकम्॥
-योगशास्त्र प्रकाश ४, श्लो. २
-अन्तर्नाद (उपाध्याय अमर मुनि)