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ॐ ३९० 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
सम्यक्त्व-संवर-प्राप्ति हेतु विमर्शनीय बिन्दु
इस प्रकार सम्यक्त्व की महिमा और लाभ को जानने के पश्चात् निस्नोक्त बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है कि वह सम्यक्त्व क्या है ? उसे प्राप्त करने, उसकी सुरक्षा करने तथा उसकी स्थिति, स्थिरता और वृद्धि करने का क्या-क्या उपाय है, जिससे कर्ममुक्ति का इच्छुक साधक सम्यक्त्व-संवर में स्थिर रह सके ?
सम्यक्त्व-संवर का साधक ___ सम्यक्त्व-संवर के साधक को सर्वप्रथम सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है। सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का जैनदर्शन में दो दृष्टियों से लक्षण किया गया है-निश्चयनय से और व्यवहारनय से। निश्चय-सम्यग्दर्शन : आत्मा के प्रति श्रद्धा, प्रतीति, विनिश्चिति
मूल में सम्यग्दर्शन आत्मा का गुण है, वह आत्मा में निहित है। इस अनन्त विश्व में यदि कोई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है तो आत्मा ही है। मोक्ष भी आत्म-स्वरूप है, इसलिए सम्यग्दर्शनादि भी आत्म-स्वरूप होने चाहिए। 'उपासकाध्ययन' में कहा गया है-इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो इन्द्रियों से ज्ञान होता है, रुचि भी मोहजन्य नहीं होती और न ही शरीर से आचरण होता है। इसलिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों (निश्चयदृष्टि से) आत्म-स्वरूप ही हैं।
अतएव निश्चय-सम्यग्दर्शन का लक्षण किया गया है-“बिना किसी उपाधि या उपचार के आत्मा की शुद्ध रुचि, श्रद्धा, प्रतीति, अनुभूति, विनिश्चिति या उपलब्धि करना निश्चय-सम्यग्दर्शन है। वास्तव में निश्चय-सम्यग्दर्शन शुद्ध आत्म-स्वरूप की दृष्टि से देखना एवं पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का निश्चय करना है। चेतना की बाह्योन्मुखी दृष्टि ज्यों-ज्यों हटती जाती है, त्यों-त्यों अन्तर्मुखी दृष्टि जाग्रत होती है। ऐसी स्थिति में स्व (आत्मा) और पर (पर-भाव या विभाव) के सम्बन्ध में बाह्य दृष्टि से नहीं, केवल आत्मा की उपलब्धि होने मात्र से निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं हो जाता; अपितु अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्मा की शुद्ध उपलब्धि
-उपासकाध्ययन क. २१/२४५
१. अक्षाज्ज्ञानं रुचिर्मोहाद् देहाद् वृत्तं च नास्ति यत्।
आत्मन्यस्मिन् शिवीभूते, तस्मादात्मैव तत्त्रयम्॥ २. शुद्धस्यानुभवः साक्षाजीवस्योपाधिवर्जितः।
सम्यक्त्वं निश्चयान्नूनमथदिकविधं हि तत्॥११॥ तत्त्वं जीवास्तिकायाद्यास्तत्स्वरूपोऽर्थसंज्ञकः। श्रद्धानं चानुभूतिः स्यात्तेषामेवेति निश्चयात्॥८॥
लाटी संहिता, सर्ग ३/११, ८