SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ३८९ * परमात्मज्योति जगमगाती देखता है। इसलिए किसी के प्रति घृणा या विषमता नहीं लाता। 'लाटी संहिता' में कहा गया है-“सम्यग्दर्शन ही सत्पुरुषार्थ है, वही परम पद है, वही परम ज्योति है और वही परम तप है।"१ सम्यग्दर्शन की ज्योति को ही परमात्म-प्राप्ति का कारण समझता है। सम्यग्दर्शन की सम्पन्नता से महालाभ . - भगवान महावीर से जब पूछा गया कि सम्यग्दर्शन की सम्पन्नता (प्राप्ति) से जीव को क्या लाभ होता है ? तो उन्होंने फरमाया-“सम्यग्दर्शन की सम्पन्नता से जीव संसार के मूल मिथ्यात्व एवं अज्ञान का छेदन करता है, फिर उसके ज्ञान का प्रकाश कभी बुझता नहीं है। उस ज्ञान के प्रकाश में वह श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन से अपनी आत्मा को संयोजित करके सम्यक् भावों से भावित होकर विचरण करता है।" इसीलिए महापुरुषों ने बताया कि “सम्यक्त्व से बढ़कर संसार में कोई लाभ नहीं है। जिसके पास सम्यक्त्व है, उसके हाथ में चिन्तामणिरत्न, घर में कल्पवृक्ष और उसके पीछे-पीछे चलने वाली कामधेनु गाय समझना चाहिए।" क्योंकि सम्यग्दृष्टि यही विचार करता है कि “यदि मेरे ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्मों का आगमन (आस्रव) सम्यग्दर्शन के प्रभाव से रुक गया और सम्यक्त्वसंवर-सम्पदा प्राप्त हो गई तो मुझे अन्य सांसारिक (धन) सम्पदा से क्या प्रयोजन है ? और यदि छल, झूठ, अनीति और बेईमानी आदि से प्राप्त सम्पदा से पापकर्मों का आस्रव होता है तो मुझे उससे भी क्या प्रयोजन है?" भौतिक सम्पदा भी न्याय-नीति और धर्म से युक्त आजीविका से प्राप्त होती है, तो भी वह उसे विनश्वर एवं पराधीनता की कारण समझकर ग्रहण करता है, उसमें लिप्त या आसक्त नहीं होता।२ . १. (क) तदेव सत्पुरुषार्थस्तदेव परमं पदम्। ... तदेव परमज्योतिस्तदेवं परमं तपः॥ -लाटी संहिता, सर्ग ३, श्लो. २ (ख) सम्मदिट्ठी संया अमूढे। __-दशवैकालिक १0/७ २. (क) (प्र.) दंसणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? (उ.) दं. भवमिच्छत्त-छेयणं करेइ, परं न विज्झायइ। परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेणं ___नाण-दंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावमाणे विहरइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ६० • (ख) सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः। -अमितगति श्रा. २/८३ (ग) सम्यक्त्वं यस्य भव्यस्य हस्ते चिन्तामणिर्भवेत्। कल्पवृक्षो गृहे तस्य, कामगव्यनुगामिनी॥ -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, प. ११, श्लो. ५४ (घ) यदिपापनिरोधोऽन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम् ? अथ पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्? -रत्नकरण्डक. अ.
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy