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________________ ॐ ३८८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * परमात्माभिमुखी, ज्ञाता-द्रष्टा का जीवन जी सकता है। इसलिए ऐसे आत्म-जागरण का श्रीगणेश सम्यग्दर्शन से ही होता है। अनादिकाल से मोह निद्रा में सुषुप्त आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व के कारण क्रोधादि कषाय, राग-द्वेष-मोह परेशान कर रहे हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन के कारण आत्म-जागृति होने से ये सब विभाव और विकार शान्त हो जाते हैं। अज्ञान, मिथ्यात्व और विकारों के आतंक को सम्यग्दृष्टि आत्मा अपनी प्रबल शक्ति से शीघ्र भंगा सकती है। सम्यग्दर्शन से आत्मा को जीव-अजीव का, स्व-पर का, स्वभाव-विभाव का सम्यक् बोध हो जाने से तथा भेदविज्ञान को हृदयंगम कर लेने से. उसे अपनी-अपनी अनन्त-शक्ति पर विश्वास हो जाता है। जीवादि तत्त्वों के वीतराग आप्तपुरुषों द्वारा प्ररूपित स्वरूप और कार्य पर पूर्ण श्रद्धान हो जाता है, आत्मा में परमात्मतत्त्व को प्रगट करने की शक्ति का भान हो जाता है। सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव आत्मा में होते ही वह आत्मा परमात्मभाव का बीजारोपण कर देती है। शुद्ध चेतना पर आने वाली मलिनता का निवारण भी सम्यग्दर्शन द्वारा हो सकता है। चेतना को बाह्य दशा से आन्तरिक दशा में लौटाने का साधन भी सम्यग्दर्शन है। वीतरागभाव या जिनत्व की प्रथम भूमिका निजभाव को समझना है, यही सम्यक्त्व, सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि सम्यग्दर्शन से ही होती है। संक्षेप में, मनुष्य की समस्त आध्यात्मिक शक्तियों का मूल नियंता सम्यग्दर्शन है, जो आत्मा में हिंसादि विभिन्न आसवों, पंचेन्द्रिय-विषयों की आसक्ति के प्रवाहों को रोकने की सतत प्रेरणा करता है। अतः सम्यग्दर्शन जीवन-निर्माण का मूल मंत्र और शाश्वत सुख-शान्ति का अधिष्ठान है। सम्यग्दर्शनरूपी धर्म जीव का सबसे श्रेष्ठ मित्र और बन्धु है। सम्यक्त्व का जीवन पर सुप्रभाव सम्यग्दृष्टि के जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में सम्यक्त्व का प्रभाव देखा जा सकता है। वह कर्त्तव्यकर्म करते हुए भी निर्लिप्त रहता है। लाचारीवश उसे आरम्भजन्य कर्म करने पड़ते हैं फिर भी वह अन्तर में उनसे उदासीन रहता है। पर-भावों के प्रति भी तटस्थ और उदासीन रहने का प्रयत्न करता है। विपत्ति, संकट या दुःख आने पर वह आत-रौद्रध्यान नहीं करता, न ही निमित्तों को कोसता है, वह अपने उपादान का ही विचार करता है। सम्यग्दृष्टि अपने और सबके अन्तर में १.. (क) 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' (अशोक मुनि) से भाव ग्रहण (ख) दर्शनवन्धोर्न परोवन्धुर्दर्शनलाभान्न परो लाभः। दर्शनमित्रान्न परं मित्रं, दर्शनसौख्यान्न परं सौख्यम्॥ -अमितगति श्रावकाचार, प. २/८५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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