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ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार 8 ३८७ 8
अन्तर में प्रकाश होते ही अज्ञान का अँधेरा क्षणभर में ही नष्ट हो जाता है। सम्यग्दर्शन एक कुशल और बाहोश कर्णधार है। वह अपार संसार-समुद्र पर चलते हुए रत्नत्रयरूप जहाज को संसार-समुद्र से सहीसलामत पार लगा देता है। सम्यक्त्वरूपी कर्णधार बीच में कहीं भी विषयासक्ति, तीव्रतम कषाय, राग-द्वेष-मोह एवं मिथ्यात्व की चट्टानों से टकराने से बचाता है और मोक्षरूपी लक्ष्य की दिशा में इस धर्म-जहाज को ले जाता है। - अतः रत्नत्रयरूप धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार नेत्रहीन जीव रूप को नहीं जान पाता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित जीव भी न सुदेव-कुदेव को, न सुगुरु-कुगुरु को और न ही धर्म-अधर्म को भलीभाँति जान-परख सकता है। इसलिए सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग की साधना का या कहें कि अध्यात्म-साधना का प्रथम साधन या मूलकेन्द्र है। गुणस्थानों की दृष्टि से सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक विकास का सिंहद्वार है। 'नंदीसूत्र' में इसे चातुर्वर्ण्य धर्मप्रधान संघरूपी सुमेरु पर्वत की आधारशिला बताया गया है। सम्यग्दर्शनरूपी नींव न हो तो अध्यात्म-साधना का भव्य महल बहमों, अन्ध-विश्वासों, निरर्थक क्रियाकाण्डों, कुमार्गगामी ज्ञानभार, अहंकार, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, प्रदर्शन, प्रसिद्धिलिप्सा, आडम्बर आदि अनेक अंधड़ों
और तूफानों से ध्वस्त हो सकता है। इसलिए मोक्षपथ की विशुद्ध अध्यात्म-साधना को सुरक्षित रखने के लिए सम्यग्दर्शनरूपी सुदृढ़ नींव की आवश्यकता है। _आत्मिक परिपूर्णता यानी आत्मिकश्री की पूर्णता की अन्तिम मंजिल चौदहवाँ गुणस्थान है, परन्तु उसकी यात्रा प्रारम्भ होती है-अविरति सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से। इसलिए सम्यक्त्व आध्यात्मिक विकास की यात्रा का प्रथम पड़ाव है। वास्तव में आत्मा की पूर्णता का अथवा आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध कराने वाला भी सम्यग्दर्शन है। जिसे अनन्तचतुष्टयश्री से सम्पन्न आत्मा के वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाता है, वह जगत् में आनन्दमय, क्षेमकुशलमय, मंगलमय, १. (क) नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा।
___ अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ -उत्तराध्ययन २८/३० (ख) अपि येन विना ज्ञानमज्ञानं स्यात्तदज्ञवत्।
चारित्रं स्यात् कुचारित्रं तपो बालतपः स्मृतम्॥ -लाटी संहिता, सर्ग ३, श्लो. ५ . (ग) ज्ञानचारित्रयोर्बीजं दर्शनं मुक्ति-सौख्यदम्।
अनर्घ्यमुपमात्यत्तं, गृहाण त्वं सुखाय यत्॥ -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ११/६८ (घ) विद्यावृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे, बीजाभावे तरोरिव॥ (ङ) सम्यक्त्वाध्युषिते जीवे नाज्ञानं व्यवतिष्ठते।
भास्वता भासिते देशे तमसः कीदृशी स्थितिः? -अमितगति श्रावकाचार, प. २/६८
-रत्नकरण्डक श्रा.३२