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________________ * ३८४ कर्मविज्ञान : भाग ६ प्रकृतियों का भेदन होने पर सम्यक्त्व - प्राप्तिरूपी विजय का अपूर्व आनन्द उसे प्राप्त होता है। सम्यक्त्व - प्राप्ति से ही भवसंख्या सीमित होती है सम्यक्त्व-प्राप्ति से सीधा मोक्ष शीघ्र ही नहीं मिलता, किन्तु इतना अवश्य है कि सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद उसे मोक्ष - प्राप्ति की गारण्टी मिल जाती है, मुक्ति-प्राप्ति का लाइसेंस या अधिकार-पत्र मिल जाता है । उसकी भवसंख्या निश्चित सी हो जाती है। एक और बात का आश्वासन सम्यग्दर्शी या सम्यक्त्वी को 'आचारांगसूत्र' में दिया गया है कि “सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के बाद वह मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी कषाय ( तीव्रतम कषाय ) से होने वाले पापकर्म का बन्ध नहीं करता।” ‘धर्मसंग्रह' में यह भी बताया है किं सम्यग्दृष्टि जीव ने यदि सम्यक्त्व-प्राप्ति से पूर्व पर-भव का आयुष्य न बाँधा हो या सम्यक्त्व का वमन न हुआ हो (अर्थात् सम्यक्त्वावस्था में यदि आयुष्यकर्म बाँधे तो) निश्चित ही वह वैमानिक देवलोक में जाता है, जोकि अन्य सभी गतियों की अपेक्षा उच्च सुख की श्रेष्ठ गति है । २ जैन-कर्मविज्ञान के सिद्धान्तानुसार यह नियम है कि जीव जिस भव से सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसी भव से उसके आगे के भवों की गणना की जाती है, अर्थात् उसी भव से उसकी कर्ममुक्तिरूप मोक्ष की ओर यात्रा शुरू हो जाती है और सम्यक्त्व-प्राप्ति से लेकर मोक्ष - प्राप्ति तक के भवों (जन्मों) की गणना की जाती है। इसी नियम के आधार पर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के २७ ही भवों का लेखा-जोखा ‘आवश्यक निर्युक्ति' में प्रस्तुत किया गया है। यों तो सम्यक्त्व-प्राप्ति से पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में भगवान महावीर की आत्मा भी चार गति एवं चौरासी लाख जीव योनियों में परिभ्रमण करती हुई अनन्त भव कर चुकी थी। लेकिन उनको सम्यक्त्व - प्राप्ति हुई - नयसार के भव में, तब से लेकर मोक्ष-प्राप्ति के भव तक २७ भवों की गणना की गई है। मरुभूति के भव में गुरु के उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्त करके भव-भ्रमण को सीमित करके भगवान पार्श्वनाथ ने 90 वें भाव में मोक्ष प्राप्त कर लिया था । १. 'कर्म की गति न्यारी' से भावांश ग्रहण २. (क) समत्तदंसी न करेइ पावं । (ख) सम्मदिट्ठी जीवो, गच्छइ णियमा विमाणवासिसु । जइ न विगय-सम्मत्तो, अहव न बद्धाउओ पुव्विं ॥ (ग) 'कर्म की गति न्यारी' से भाव ग्रहण, पृ. ७/८९ . - आचारांगसूत्र - धर्मसंग्रह २ / ३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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