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________________ ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार * ३८३ ॐ प्रकाश आदि की दुनियाँ न देखी हो; उसे अचानक किसी पूर्वकृत शुभ कर्मोदयवश आँखों से दिखाई देने लगे, तो उसे उस समय जैसे अपूर्व एवं अनुपम आनन्द की अनुभूति होती है, ठीक इसी तरह अनन्त पुद्गल-परावर्तनकाल में अनन्त जन्मों तक अनादि-मिथ्यात्व के कारण, जिसके सम्यग्दर्शनरूप नेत्रयुगल नष्ट हो चुके थे, जिसके कारण वर्षों से जो सत्य के प्रकाश और स्वरूप को देख नहीं पा सका था, संयोगवश उस भवाभिनन्दी जीव का भव्यत्व परिपक्व होने पर अपूर्व करणादि तीनों करणों की सहायता से ग्रन्थिभेद होने से सम्यग्दर्शनरूपी जो नेत्रोन्मिलन होता है, जिससे मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश होने से सम्यक्त्व का-सत्यश्रद्धान का जो प्रकाश प्राप्त होता है; उसका आनन्द उस जन्मान्ध की अपेक्षा भी अनेक गुना होता है।" ___'योगबिन्दु' में भी कहा गया है-ग्रन्थिभेद किये हुए प्रशस्तभाव वाले महान् आत्मा को सम्यक्त्व प्राप्त होते ही जो तात्त्विक आनन्द प्राप्त होता है; वह वैसा ही है, जैसे किसी२ महाकुष्ट रोग से पीड़ित रोगी को शीतोपचार आदि किसी औषध-विशेष से अकस्मात् चमत्कारवत् रोगोपशमन हो जाने से अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है; वैसा ही अनादि संसार के मिथ्यात्व रोग से पीड़ित जीव को तीनों करणरूप-महौषध से मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने से सम्यक्त्व-प्राप्ति का पारमार्थिक परम आनन्द प्राप्त होता है। — एक अन्य रूपक द्वारा भी इसे समझाया गया है-सशक्त एवं कुशल योद्धा भयंकर संग्राम में युद्ध करते-करते अन्त में हारने जैसी स्थिति में घोर निराशा के सागर में डूब जाता है, तभी अकस्मात् शुभ संयोगवश उसके द्वारा छोड़ा गया तीर ठीक निशाने पर लग जाता है और शत्रु पक्ष की हार हो जाती है, ऐसे समय में उस योद्धा को विजय का जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे भी अनेक गुणा आनन्द, भव्य जीव को संसार-संग्राम में मोहनीय कर्म की प्रकृतिरूपी सेना के साथ युद्ध करते-करते हारने के अन्तिम क्षण में अपूर्वकरण आदि शस्त्रों से मोहनीयजनित राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि का भेदन करने से मिथ्यात्व रिपु की हार हो जाने पर सम्यक्त्व-प्राप्तिरूपी विजय पाने का होता है। अर्थात् ग्रन्थिभेद करने से सम्यक्त्वमोहनीय आदि तीन तथा अनन्तानुबन्धी चार कषाय; यों मोहनीय कर्म की सात १. जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये। .. सद्दर्शनं तथैवाऽस्य ग्रन्थिभेदेऽपदे जगुः॥ २. आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्विकोऽस्य महात्मनः। स- याद्याभिभवे यदेवत् व्याधितस्य महौषधात्॥ -योगबिन्दु
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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