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सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार
अनादि मिथ्यात्वी को सम्यक्त्व-प्राप्ति का अपूर्व आनन्द लाभ ___ कोई साहसिक यात्री महासमुद्र को तैरकर यात्रा कर रहा हो और वह कई दिनों तक तैरते-तैरते थककर चूर-चूर हो रहा हो और तभी उसे ठीक सामने किनारा दिखाई दे, तब शेष रहे हुए थोड़े-से अन्तर को देखकर उसे कितनी प्रसन्नता होती है? ठीक इसी तरह संसाररूपी महासागर का यात्री मिथ्यादृष्टि भव्य । जीव, मिथ्यात्व के मार्ग से संसार-यात्रा करता-करता थककर अत्यन्त परिश्रान्त हो जाये, किन्तु भव्यत्व की परिपक्वता के कारण यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण' करके राग-द्वेष की प्रगाढ़ गाँठ का भेदन करके सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जब मोक्षमार्ग पर चढ़कर सामने देखता है, तब जैसे समुद्र-यात्री को किनारा दिखाई देता है, उसी तरह सम्यक्त्वी जीव को मोक्ष का क्षितिज सामने दिखाई देता है। इस अनन्त दुःखरूप संसार से मुक्त होकर अवश्य ही मोक्षधाम प्राप्त करूँगा' ऐसा विश्वास हो जाने से उसे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है; क्योंकि अनन्त-पुद्गल-परावर्तनकाल तक संसार-यात्रा की तुलना में अब शेष बची हुई अर्द्ध-पुद्गल-परावर्तनकाल३ की अन्तिम संसार-यात्रा उक्त सम्यक्त्वी जीव के लिए अत्यन्त अल्पकालावधि है। भले ही इस अर्द्ध-पुद्गल-परावर्तनकाल में असंख्य भव भी हों, फिर भी सम्यक्त्वी जीव को अपूर्व एवं अनुपम आनन्द की अनुभूति होती है।
समभावी आचार्य हरिभद्रसूरि इस तथ्य को एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-“कोई व्यक्ति जन्म से ही अन्धा हो, जिसने अपने जीवन में कभी रूप, रंग और
१. यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के लिए देखें-कर्मविज्ञान, भा. ५ २. सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाणसंगमः। ३. अंतोमुत्तमित्तं पि फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं। तेसिं अवड्ढ-पुग्गल-परियट्टो चेव संसारो॥
-नवतत्त्वगाथा ५३ ४. 'कर्म की गति न्यारी' (पन्यास श्री अरुणविजयगणि जी) से भावांश ग्रहण, पृ. ८८