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ॐ चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ® ३८१ %8 गुणस्थान वाले साधक को और द्वितीय चारित्र बारहवें और उससे ऊपर के गुणस्थानों के अधिकारी महापुरुषों के होता है।
दिगम्बर परम्परामान्य यथाख्यातचारित्र दिगम्बर परम्परा में इसके दो रूप मिलते हैं-अथाख्यात और यथाख्यात। पहले का अर्थ है-अथ शब्द अनन्तर अर्थ में प्रयुक्त होने से जो चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम या क्षय के अनन्तर आविर्भूत हो, वह अथाख्यात है। यथाख्यातचारित्र का अर्थ है-जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है, उसी प्रकार यह भी आत्म-गुणों में अवस्थित हो जाए।२
पाँचों चारित्रों में विशुद्धिलब्धि : उत्तरोत्तर अनन्तगुणी ___ उत्तरोत्तर गुणों (आत्म-गुणों) के प्रकर्ष का ख्यापन करने-आत्म-शुद्धि उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रबल करने के लिए सामायिक, छेदोपस्थापना इत्यादि क्रम से पाँचों चारित्रों का नाम-निर्देश किया है। इन पाँचों की विशुद्धिलब्धि भी उत्तरोत्तर अनन्तगुणी होती जाती है। जैसे-सामायिक और छेदोपस्थापनाचारित्र की जघन्य विशुद्धिलब्धि सबसे अल्प होती है। इससे परिहारविशुद्धि की जघन्य विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी, फिर इसी की उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है। फिर उससे सामायिक और छेदोपस्थापना की उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है। इससे सूक्ष्मसम्परायचारित्र की जघन्य, फिर उसी की उत्कृष्ट और इन सबसे अनन्तगुणी विशुद्धिलब्धि होती है-यथाख्यातचारित्र की।३ ।।
चारित्र का पृथक् कथन : सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्ति प्ररूपणार्थ यद्यपि दशविध उत्तम धर्म में चारित्र अन्तर्भूत हो जाता है, किन्तु चारित्र से संवर और निर्जरा के अतिरिक्त सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष से होता है, इस अपेक्षा से चारित्र का अलग से कथन किया गया है।
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१. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २८, गा. ३२-३३ विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४८२ । २. मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमान् क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं अथाख्यातचारित्र
मित्याख्यायते। पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तन्प्राप्तं प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम्। अथ-शब्दस्यानन्तर्यार्थ वृत्तित्वानिरवशेष-मोह-क्षयोपशमानन्तरमाविर्भवतीत्यर्थः। यथाख्यातमिति वा, यथाऽऽत्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात्। ततो यथाख्यातचारित्रात्
सकल-कर्म-क्षय-परिसमाप्तिर्भवहीति ज्ञाप्यते। -सर्वार्थसिद्धि ९/१८/८५४/३३४ ३. (क) सामायिकादीनामानुपूर्व्यवचनमुत्तरोत्तर-गुणप्रकर्ष ख्यापनार्थं क्रियते।
-वही, ९/१८/८५४/३३४ । (ख) सर्वार्थसिद्धि, अ. ९, सू. १८ के विशेषार्थ से (सं. पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री),
पृ. ३३४ ४. तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि, अ. ९, सू. १८ के विवेचन से भाव ग्रहण