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ॐ ३७६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
हो सकने से अशुभ से निवृत्यर्थ शुभोपयोग मुख्य होता है, शुद्धोपयोग गौण। अर्थात् दोनों में से एक के निश्चय व्यवहारसापेक्ष होता है, जबकि दूसरे के व्यवहार निश्चयसापेक्ष होता है। दोनों ही अपनी-अपनी भूमिका में रहते हुए संवर, निर्जरा और परम्परा से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि श्रावक गृहस्थ वर्ग को संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति न होती तो पन्द्रह प्रकार के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने में गृहीलिंगसिद्धा, अन्यलिंगसिद्धा आदि उदारतासूचक विधान जैन तीर्थंकरों का न होता। बल्कि उपासकदशांग और सुखविपाकसूत्र में जिन-जन दानादि शुभोपयोगी सम्यग्दृष्टि तथा व्रतधारी श्रमणोपासकों का वर्णन है, वहाँ उनमें शुद्धोपयोगलक्षी शुभोपयोग होने से देवगति प्राप्त होने पर भविष्य के भवों में शुभोपयोग सापेक्ष शुद्धोपयोगी श्रमण बनकर मोक्ष प्राप्त करने का निरूपण भी किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि सरागचारित्र या व्यवहारचारित्र एकान्त हेय नहीं है और न ही नीची भूमिका वाले श्रमण वर्ग के लिए शुभोपयोग निरपेक्ष एकान्त शुद्धोपयोग का अवलम्बन उपादेय है।२ व्यवहारचारित्र कथंचित् उपादेय है; क्यों और कैसे ? _ व्यवहारचारित्र को एकान्ततः हेय और पाप के समान मानने वालों के समक्ष 'मोक्खपाहुड' में व्यवहारचारित्र की अभीष्टता और उपयोगिता युक्तिसंगत प्रस्तुत करते हुए कहा है-"व्रत और तप से स्वर्ग प्राप्त होता है तथा अव्रत और अतप से नरकादि गति में दुःख प्राप्त होते हैं। इसलिए इन दोनों में व्रत श्रेयस्कर है, अव्रत नहीं। जैसे-छाया और आतप (धूप) में खड़े होने वाले को दोनों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा अन्तर मालूम होता है।"३
'भावसंग्रह' में भी बताया गया है-“सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से (एकान्ततः) संसार का कारण नहीं होता, अपितु यदि वह निदान (नियाणा) न करे तो मोक्ष का कारण होता है। आवश्यक आदि या वैयावृत्य, दान आदि जो कुछ भी शुभ क्रिया सम्यग्दृष्टि करता है, वह (उसकी आत्माश्रयीभावना के कारण) सब की सब उसके लिए निर्जरा की निमित्त होती है।"४
१. 'प्रवचनसार' (पं. जयचन्द जी कृत टीका) २५४ से भाव ग्रहण २. (क) देखें-समवायांगसूत्र, समवाय १५ में-तीर्थसिद्धा आदि सिद्धों के १५ प्रकार (ख) देखें-उपासकदशांगसूत्र में आनन्दादि श्रावकों का वर्णन, सुखविपाकसूत्र में
सुबाहुकुमार आदि का वर्णन ३. वरवय-तवेहिं सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।।
-मोक्खपाहुड, मू. २५ ४. सम्यग्दृष्टेः पुण्यं न भवति संसारकारणं नियमात्।
मोक्षस्य भवति हेतुः, यदि च निदानं न करोति॥४०४॥