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________________ ॐ चारित्र:संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन * ३७५ ॐ के साथ-साथ शुद्धोपयोग भी अवश्य रहता है। इसलिए जितने अंशों में शुभ राग होता है, उतने अंशों में भले ही बन्ध हो, परन्तु जितने अंशों में राग नहीं है, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप है, उतने अंशों में बन्ध नहीं है, संवर और निर्जरा ही है। इस अपेक्षा से ही यहाँ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा बताई है। शर्त इतनी ही है कि निश्चय और व्यवहार दोनों परस्पर सापेक्ष हों। निश्चयसापेक्ष व्यवहार और व्यवहारसापेक्ष निश्चय ‘पंचास्तिकाय ता. वृ.' में स्पष्टतया बताया गया है-(१) जो व्यक्ति निश्चय मोक्षमार्ग से निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहार को ही मानते हैं, वे उससे देवलोकादि की क्लेश परम्परा के द्वारा संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। (२) यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धानुभूति लक्षण वाले मोक्षमार्ग को मानते हुए चारित्र में निश्चय मोक्षमार्ग के अनुष्ठान (निर्विकल्प समाधि) की शक्ति का अभाव होने के कारण निश्चय को सिद्ध करने वाले ऐसे शुभानुष्ठान को करें तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। (३) यदि कोई केवल निश्चयनयावलम्बी होकर शुद्धात्मा की प्राप्ति न होते हुए भी साधुओं के योग्य षड्आवश्यकादि अनुष्ठान को तथा श्रावकों के योग्य दान, शील, तप आदि अनुष्ठान को दूषण देते हैं, वे उभय भ्रष्ट होकर केवल पाप का ही बन्ध करते हैं। (४) यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धात्मा के अनुष्ठानरूप निश्चय मोक्ष मार्ग को तथा उसके साधक व्यवहार मोक्ष मार्ग को मानते हुए चारित्र में चारित्रमोहोदयवश शुद्ध चारित्र की शक्ति का अभाव होने के कारण, अन्य साधारण शुभ-अशुभ अनुष्ठानों से रहित वर्तते हुए भी शुद्धात्मभावना-सापेक्ष शुभानुष्ठानरत पुरुष के सदृश न होने पर भी परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। - इन चार विकल्पों में निश्चयसापेक्ष व्यवहार और व्यवहारसापेक्ष निश्चय, ये दो ही विकल्प ठीक हैं। शेष दो विकल्प-निश्चयनिरपेक्ष व्यवहार तथा व्यवहारनिरपेक्ष निश्चयालम्बन-ठीक नहीं हैं। - 'प्रवचनसार' पर पं. जयचन्द जी की टीका में भी इसका स्पष्टीकरण किया गया है-दर्शनापेक्षा से तो श्रमण का तथा सम्यग्दृष्टि तथा विरताविरत श्रावक के शुद्धात्मा का ही आश्रय है, परन्तु चारित्र की अपेक्षा से श्रमण के शुद्धात्म परिणति (शुद्धोपयोग) मुख्य होने से शुभोपयोग गौण होता है और सम्यग्दृष्टि या व्रती श्रावक के मुनि योग्य शुद्ध परिणति (इतनी उच्च कोटि की और सतत) प्राप्त नहीं १. देखें-'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय', श्लोक २१२-२१६ २. देखें-पद्मनन्दि पंचविंशतिका ६/६0 और पंचास्तिकाय ता. वृ. १७२/२४७/१२ का गद्य पाठ
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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