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चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ३७७
सरागचारित्र और वीतरागचारित्र अथवा व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र का कथन किया जा चुका है। सरागचारित्र के दो भेद किये गए हैं - सकलचारित्र और देशचारित्र | वही चारित्र औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है अथवा उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य विशुद्धि के भेद से तीन प्रकार का है। औपशमिक आदि तीनों सकलचारित्र के प्रकार हैं। इनका लक्षण इस प्रकार है
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकचारित्र के लक्षण
दर्शनमोहनीय की ३ और चारित्रमोहनीय की २५, इन २८ प्रकृतियों के उपशम से औपशमिकचारित्र होता है। पूर्वोक्त २८ ही प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने से क्षायिकचारित्र होता है। क्षायोपशमिकचारित्र का लक्षण इस प्रकार हैअनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी । इन बारह प्रकार के कषायों के उदयाभावी क्षय होने से तथा इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से एवं संज्वलन के • चार कषायों में किसी एकदेशघाती प्रकृति के उदय में आने पर इसी प्रकार नौ नोकषायों के यथासम्भव उदय में आने पर आत्मा का निवृत्तिरूप ( त्यागरूप) परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिकचारित्र है । २
सामायिकादि पाँच चारित्रों का स्वरूप
इसी चारित्र के ५ भेद मुख्य हैं - सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनिकचारित्र, परिहारविशुद्धिचारित्र, सूक्ष्मसम्परायचारित्र और यथाख्यातचारित्र । ३
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आवश्यकादि कर्म वैयावृत्यं च दानपूजादि ।
यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत् सर्वं निर्जरानिमित्तम्॥६१०॥
१.. (क) जैनसिद्धान्त प्र. २२२
(ख) सयलचारितं तिविहं खओवसमियं ओवसमियं खइयं चेदि ।
- भावसंग्रह ४०४, ६१०
- धवला १/९, ८/१४
- राजवार्तिक १/७/१४/४१
(ग) त्रिधा - औपशमिक क्षायिक- क्षायोपशमिक विकल्पात् । २. (क) देखें- राजवार्तिक २/३/३/१०५/१७ तथा २/४/७/१०७/११ में औपशमिक और
क्षायिकचारित्र के लक्षण
(ख) देखें - सर्वार्थसिद्धि २/५/१५७/८ में क्षायोपशमिकचारित्र का लक्षण
३. सामाइयत्थ पढमं छेदोवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥३२॥ अकसायं अक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं ॥ ३३ ॥
- उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २८, गा. ३२-३३