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________________ ॐ धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव ॐ १९ * कुछ होगा, यह जानकर संतोष और समता धारण करूँगी। आपका महान् उपकार है कि मुझे ऐसा अपूर्व ज्ञान दिया।" ___ यह था, धर्म और पुण्य के स्वरूप और कार्य को न समझने का परिणाम। समझ में आने पर सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति पुण्यफल-प्राप्ति की इच्छा और पुण्यफल प्राप्त होने की शंका, कांक्षा और विचिकित्सा की उधेड़बुन में समय और शक्ति नहीं खोता, वह संवर-निर्जरारूप धर्माचरण में पुरुषार्थ करता है। अपनी प्राप्त शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक-शक्तियों का सदुपयोग मोक्ष मार्ग के अग्रदूत सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपरूप धर्म की आराधना-साधना में करता है। कर्ममुक्ति का ही अधिकाधिक ध्यान रखता है। पूर्वोक्त वृद्धा और मुनिवर के धर्म-कर्म-सम्बन्धी संवाद पर से धर्म और कर्म के स्वरूप और कार्य का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। धर्म करने और न करने वाले में क्या अन्तर है ? इस संवाद पर से यह प्रश्न भी समाहित हो जाता है कि एक व्यक्ति जो धर्माचरण नहीं करता, धार्मिक कार्य से सदा विमुख रहता है, उस पर जब कोई संकट आता है, तो कह दिया जाता है, वर्तमान में वह धर्म नहीं करता, इसलिए ऐसा कर्मफल मिला। इसके विपरीत धर्माराधक के जीवन में कोई कष्ट या संकट आता है तो कहा जाता है कि यह इसके किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल है, जिसे वह भोग रहा है। यह समाधान कर्मविज्ञान की दृष्टि से पूर्णतः यथार्थ नहीं है। संकट या कष्ट चाहे धर्म न करने वाले पर आए अथवा धर्म करने वाले पर आए, दोनों का समाधान एक सरीखा ही होगा कि दोनों के ही किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म के उदय से ऐसा हुआ। जो कर्म का विपाक (फल) मिलता है, वह किसी न किसी पूर्वकृत कर्म का ही होता है। वर्तमान में धर्म न करने वाले को वर्तमान कर्मफलजनित कष्ट मिलता है और वर्तमान में धर्म करने वाले को • 'पूर्व कर्मफलजनित कष्ट मिलता है, यह समाधान सिद्धान्त-संगत नहीं है। दोनों का कष्ट तो पूर्व कर्मजनित ही है। धर्म करने वाले को भी पूर्वकृत कर्म का फल भोगना पड़ता है और धर्म न करने वाले को भी पूर्वकृत कर्म का फल भोगना पड़ता है। धर्म करने वाला वर्तमान में संवर-निर्जरा के रूप में जो धर्माचरण कर रहा है, उसके फलस्वरूप या तो नये आते हुए कर्म का निरोध होता है या फिर पूर्वकृत कर्म का क्षय होता है। १. 'अपने घर में' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. १७१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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