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* १८ कर्मविज्ञान : भाग ६
सब संकटापन्न स्थितियाँ साधुवर्ग पर तथा अणुव्रती श्रावकवर्ग पर नहीं आनी चाहिए। इतना धर्माचरण, अहिंसा, सत्य आदि महाव्रतों का पालन, विविध तपश्चरण, सब प्रकार से संयम - पालन करने के बावजूद भी, यानी धर्म के विविध अंगों-क्षमा, दया, ऋजुता, मृदुता आदि के अपनाने पर भी रोग, दुःख, चिन्ता, संकट, उपसर्ग, परीषह आदि क्यों आते हैं ? इसके विपरीत जो लोग धर्माचरण नहीं करते हैं, तपश्चर्या भी नहीं करते, श्रावकव्रत या महाव्रत का पालन भी नहीं करते, जिनकी देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं है, उनके जीवन में बाह्य दृष्टि से खुशहाली, धन-सम्पन्नता, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति, स्वस्थता और सुन्दरता आदि देखे जाते हैं; उन पर धर्म का प्रताप क्यों नहीं घट जाता अथवा धर्म के प्रभाव से उन पर दीनता - हीनता क्यों नहीं आती ? देव, गुरु और धर्म की निन्दा करने वालों पर वे कहर क्यों नहीं बरसाते ? ये और इस प्रकार के धर्म-विषयक प्रश्नों से स्पष्ट है कि धर्म अहिंसा आदि व्रतों के पालन में है, धर्म त्याग, तप, संयम, समिति गुप्ति - पालन, चारित्र, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, परीषह-सहन आदि में है। धर्म परिग्रहत्याग, पाँचों इन्द्रिय-विषयों पर संयम, कामना, वासना, नामना, प्रसिद्धि तथा अहंकार, मद, मत्सर, लोभ, क्रोध, मान, माया आदि विकारों पर विजय प्राप्त करने में है। किसी अशुभ कर्म के उदय में आने पर समभाव से उस कष्ट, दुःख और विपदा को सहने में धर्म है। वह शुभ-अशुभ कर्म है, जो पुण्य-पाप कहलाता है। शुभ कर्म (पुण्योदय) के फलस्वरूप सांसारिक सुख, सुख-साधन, शरीरादि से सम्बन्धित शुभ अवयव आदि या प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि मिलते हैं। इसके विपरीत अशुभ कर्म (पाप) के उदय से दुःख, विपत्ति, संकट, अशुभ, अमनोज्ञ, अनिष्ट वस्तुओं का संयोग प्राप्त होता है। पुण्य धर्म की कोटि में नहीं आता । अतः पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्ध हैं, संसार के मार्ग हैं, धर्म संवर और निर्जरा है, वह मोक्ष का मार्ग है। धर्म का फल तो कर्मों से मुक्त होना है, जबकि पुण्य-पाप का फल प्राप्त होना, न होना शुभ-अशुभ कर्म के उदयाधीन है । किन्तु पुण्य-पाप दोनों के फल प्राप्त होने पर समभाव रखने से, निर्लिप्त रहने से तथा आसक्ति और घृणा से दूर रहने से संवर - निर्जरारूप धर्म उपार्जित किया जा सकता है । सम्भव है, तुम्हारे किसी न किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म का उदय हो, उसके कारण तुम्हारा मनोरथ सफल न होता हो ।”
मुनिराज द्वारा समझाने पर बुढ़िया का मनः समाधान हो गया। वह बोली-"मैं अब भलीभाँति समझ गई हूँ।' अब मैं कर्मक्षय ( संवर - निर्जरा) की दृष्टि से ही धर्माराधना करने का प्रयत्न करूँगी । पूर्वकृत अशुभ कर्मों का क्षय होगा, तभी सब १. 'जवाहर किरणावली. भा. १९' ( बीकानेर के व्याख्यान ) ( जैनाचार्य पूज्य श्री . जवाहरलाल म.) से सार संक्षेप