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________________ ॐ धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव * १७ 8 अमुक की धर्म के प्रभाव से दरिद्रता दूर हुई और धन-सम्पन्नता प्राप्त हुई। अमुक व्यक्ति को धर्म के अनुग्रह से संकट दूर हो गया इत्यादि। जब धर्म के प्रताप से इतने-इतने कार्य होते हैं तो मुझे पोता देने में धर्म का प्रभाव कहाँ चला गया?' मुनिवर ने उलटकर बुढ़िया से पूछा-“अच्छा बताओ, तुम्हारे बेटा हुआ, वह स्वस्थ रहता है, उसको तुम-सी माता मिली, वह और बहू तुम्हारी सेवा करते , उसका विवाह हुआ, यह सब किसके प्रताप से हुआ?" बुढ़िया-“इसमें क्या पूछना है, ये सब तो धर्म के प्रताप से हुए हैं !' मुनिवर-“माँजी ! इतने सब कार्य धर्म के प्रताप से मानती हो और एक कार्य (पुत्र को पुत्र-प्राप्ति) न हुआ, तो क्या धर्म का प्रताप घट गया? जो धर्म इतनी बातें दे सकता है, वह क्या तुम्हें एक पोता नहीं दे सकता था? तुम्हीं सोचोइसमें (पौत्र-प्राप्ति न होने में) धर्म का सामर्थ्य नहीं है या तुम्हारे अन्तराय आदि कर्म कारण हैं ? और तुम इस तथ्य को न समझकर धर्म को कोसने लगीं, धर्म के प्रति स्वयं अश्रद्धा करने और दूसरे लोगों में अश्रद्धा पैदा करने लगीं; इससे पुराने बाँधे हुए कर्मों का भुगतान तो हुआ नहीं और नये अशुभ कर्म और बाँध रही हो।" यह सुनकर बुढ़िया की आँखें खुल गईं। वह कहने लगी-"महाराज ! अब मैं समझ गई। मैंने अज्ञानतावश धर्म के प्रति अश्रद्धा प्रगट करके एवं धर्म की आशातना करके कितने अशुभ कर्म बाँध लिये, मुझे क्षमा करें, आप धर्मावतार हैं। आप जैसा कोई मुझे युक्तिपूर्वक समझाने वाला नहीं मिला। आप सब सन्तों और धर्मात्माओं की भी मैंने घोर आशातना की। मुझे यह बताने की कृपा करें कि धन, पुत्र, स्त्री आदि का मिलना, परस्पर स्नेह-सौहार्द, माता-पिता के प्रति सेवाभाव, दरिद्रता, विपन्नता, विपत्ति आदि दूर होना, पाँचों इन्द्रियों के विषयभोगों का प्राप्त होना, सांसारिक सुख और सुख के साधन मिलना इत्यादि क्या ये सब धर्म के कार्य नहीं हैं.? ये धर्म के कार्य नहीं हैं तो फिर किसके कार्य हैं ?" मनिराज-“ये सब धर्म के कार्य होते तो साधु-साध्वी या तीर्थंकर, केवली आदि तो गृहस्थों से कई गुना बढ़कर धर्माचरण करते हैं, संयम-पालन करते हैं, फिर इनको तथा संयम ग्रहण करने वाले चक्रवर्ती नरेन्द्रों को धन-प्राप्ति क्यों नहीं होती? अथवा इन्हें धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, राज्य-ऋद्धि, भौतिक सुख-साधन आदि का त्याग करने की क्या जरूरत थी? इतने-इतने धर्मात्मा, धर्मनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी साधु-साध्वियों पर उपसर्ग और परीषह क्यों आते हैं ? क्यों इन्हें संकट, मानसिक सन्ताप, विपत्ति, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग की प्राप्ति, बीमारी, दुःसाध्य व्याधि, अकाल मृत्यु आदि का उपद्रव होता है ? धर्म के प्रताप और प्रभाव से ये
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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