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________________ * चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ३६९ ® अनुसार-उपेक्षासंयम या वीतरागचारित्र और अपहृत्यसंयम या सरागचारित्र, ये दोनों भी एक उसी शुद्धोपयोग में होते हैं अथवा सामायिक आदि पाँच प्रकार के संयम (चारित्र) भी उसी में प्राप्त होते हैं। क्योंकि उपर्युक्त संयमादि सर्वगुण एकमात्र शुद्धोपयोग में (ज्ञानमय आत्मा में) प्राप्त होते हैं। इसलिए वही (निश्चयचारित्र ही) प्रधानरूप से उपादेय है। निश्चयचारित्रलक्षी व्यवहारचारित्र सार्थक है वास्तव में जो साधक आत्म-स्वभाव में या परमार्थ (मोक्ष = कर्ममुक्ति) में लक्ष्य स्थिर किये बिना बहुत से शास्त्र पढ़ता है या बहुत से व्रत, समितिगुप्ति आदि रूप चारित्र पालन करता है, उसका वह चारित्र व्रत या तप बालचारित्र, बालव्रत तथा बालतप कहलाता है। ‘मोक्खपाहुड' और 'समयसार' दोनों इस तथ्य के साक्षी हैं।२ व्यवहारचारित्र की सार्थकता ‘प्रवचनसार' में भी कहा गया है कि जो साधक पापारम्भ को छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होने पर भी (पर-पदार्थों में इष्टानिष्टरूप) रागादि (मोहादि) को नहीं छोड़ता (छोड़ने का प्रयत्न भी नहीं करता, न ही छोड़ने की रुचि रखता है), वह शुद्धात्मा (शुद्धात्म-स्थिति) को प्राप्त नहीं होता। अर्थात् वीतरागचारित्र को प्राप्त नहीं कर पाता, वह सरागचारित्र के दर्जे में ही बैठा रहता है। इसलिए वैसा वीतरागचारित्र के प्रति अलक्ष्यी सरागचारित्र, अचारित्र या मिथ्याचारित्र हो जाता है। ऐसा साधक व्रतादि भी कषायवश पालता है, इस कारण वह असंयमादि को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि व्यवहारचारित्र की सार्थकता निश्चयचारित्र से ही है। अतः आत्म-स्व-भाव से विपरीत बहुत प्रकार से धारण किया हुआ चारित्र मिथ्याचारित्र या बालचारित्र कहलाता है।३ १. येन कारणेनं पूर्वोक्ताः संयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे लभ्यन्ते, तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः। -परमात्म-प्रकाश टीका २/६७ २. (क) जदि पंढदि बहुसुदाणि जदि कहिदि बहुवियं य चारित्तं। तं वालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं।। -मोक्खपाहुड, मू. १00 (ख) परमट्ठम्हि दु अहिदो जो कुण दि तवं वदं च धारेइ। __तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू।। -समयसार, मू. १५२ ३. (क) चत्ता पावारंभो समुट्टिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥ -प्र. सा. ७९ (ख) णाणी कसायवसगो असंजमो होइ स ताव। -रयणसार, मू. ७१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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