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________________ ®. ३६८ ॐ कर्मविज्ञान :भाग६ सरागचारित्र और वीतरागचारित्र में अन्तर जहाँ जीव की अन्तरंग विरागता या साम्यता हो, वहाँ निश्चयचारित्र होता है और जहाँ उसमें बाह्य वस्तुओं का ध्यानरूप व्रत हो, बाह्य प्रवृत्तियों में यत्नाचाररूप समिति हो तथा मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने रूप गुप्ति हो, वहाँ व्यवहारचारित्र होता है। व्यवहारचारित्र को सरागचारित्र और निश्चयचारित्र को वीतरागचारित्र कहते हैं। नीचे के गुणस्थानों की भूमिकाओं में व्यवहारचारित्र की, ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों की भूमिकाओं में निश्चयंचारित्र की प्रधानता रहती है। दूसरे शब्दों में-शुभोपयोगी साधु का व्रत, तप, समिति; गुप्ति के विकल्पोंरूपचारित्र सरागचारित्र है और शुद्धोपयोगी साधु के वीतराग-संवेदनरूप ज्ञाता-द्रष्टाभाव वीतरागचारित्र है।' 'संवासिद्धि' के अनुसार-“जो साधक संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके मन से राग के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं वह सराग कहलाता है। प्राणी और इन्द्रियों के विषय में अशुभ योगों की प्रवृत्ति के त्याग को संयम (चारित्र) कहते हैं, किन्तु वह होता है रागी जीव का संयम (चारित्र)।" 'नयचक्र वृत्ति' के अनुसार-जो श्रमण मूल और उत्तर गुणों को धारण करता है तथा पंचविध आचारों का कथन करता है, पालन भी यथाशक्ति करता है तथा संयम की आठ प्रकार की शुद्धियों (भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, परिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि) में निष्ठ रहता है, वह उसका सरागचारित्र है तथा शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योगों से निवृत्ति वीतरागसाधु का चारित्र है अथवा 'नियमसार ता. वृ.' के अनुसार-स्व-रूप में विश्रान्ति ही परम वीतराग चारित्र है। प्रधानरूप से उपादेय वीतरागचारित्र ___ यद्यपि वीतरागचारित्र उत्कृष्ट चारित्र है, किन्तु उसका आचरण करने की जिस साधक की अभी भूमिका नहीं है, चारित्रमोह कर्म का उदय होने से वह उसे पाल नहीं सकता, किन्तु व्यवहारचारित्री की दृष्टि अथवा लक्ष्य शुद्धात्मभाव अथवा शुद्धोपयोग या परमार्थ की ओर ही होना चाहिए। ‘परमात्म-प्रकाश टीका' के १. 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. २' में चा . शब्द की व्याख्या से, पृ. २८९ २. (क) संसारकारण-विनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णोऽक्षीणाशयः सरागः इत्युच्यते, प्राणीन्द्रियेषु अशुभप्रवृत्तेर्विरतिः संयमः। सरागस्य संयमः, सरागो वा संयमः सरागसंयमः। -सर्वार्थसिद्धि ६/१२/३३१/२ (ख) मूलुत्तरसमणण्णुणा धारणकहणं च पंच आयारो। सोही तहव सणिट्ठा सरायचरिया हवइ एवं ॥३३४॥ सुह-असुहाण-णि वित्ति चरणं साहुस्स वीयरायस्स॥३७८॥ -नयचक्र वृ. ३३४, ३७८ (ग) स्वरूप विश्रान्ति लक्षणे परम-वीतराग चारित्रे। -नियमसार ता. वृ. १५२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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