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________________ * चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन * ३७१ 8 ___ व्यवहारपूर्वक ही निश्चयचारित्र की उत्पत्ति व्यवहारचारित्र की प्राथमिकता इसलिए भी अभीष्ट है कि व्यवहारपूर्वक ही निश्चयचारित्र की उत्पत्ति का क्रम है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार-“भ त चक्रवर्ती ने जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण करने के दो घड़ी पश्चात् मोक्ष प्राप्त किया था। उन्होंने दीक्षा के पश्चात् थोड़े समय तक विषयों और कषायों की निवृत्तिरूप व्रत का परिणाम किया था। तत्पश्चात् शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रयस्वरूप निश्चयव्रत नामक वीतराग-सामायिकनामा निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु लोग उनके थोड़े समय तक रहे व्यवहारचारित्ररूप व्रत परिणामों को जानते नहीं हैं।" सरागचारित्र भी परम्परा से मोक्ष का उपाय व कारण है इसी अपेक्षा से ‘प्रवचनसार ता. वृ.' में कहा गया है-सरागचारित्र से मुख्यवृत्त्या विशिष्ट पुण्य का बन्ध होता है और परम्परा से निर्वाण भी प्राप्त होता है। इसका समर्थन 'द्रव्यसंग्रह टीका' में भी किया गया है। 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' में भी कहा गया है-“यद्यपि भेदरत्नत्रय (व्यवहारचारित्ररूप) की भावना से जो पुण्यबन्ध होता है, वह रागकृत है, फिर भी मिथ्यादृष्टि भी भाँति उसके लिए संसार का कारण नहीं, बल्कि परम्परा से मोक्ष का ही कारण है।"२ 'नियमसार' के अनुसार-आचार्यों ने शील को मुक्तिसुख का मूल कारण कहा, परन्तु व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्पराकारण है।३ ‘पंचास्तिकाय ता. वृ.' में पिछले पृष्ठ का शेष (घ) ध्रुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। _____णाऊण धुवं उज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि॥ -मोक्खपाहुड ६० (ङ) मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। · · रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥४७॥ रागद्वेषनिवृत्तेहिंसादि-निवर्तना कृता भवन्ति॥४८॥ -रत्नकरण्डक श्रावकाचार ४७-४८ १. देखें-द्रव्यसंग्रह टीका ५७/२३१ में भरतचक्री को केवलज्ञान-प्राप्ति का वर्णन २... असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो, न बन्धनोपायः॥ -पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २११ ३. (क) सरागचारित्र्यात्... "मुख्यवृत्त्या विशिष्ट पुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणं चेति। -प्रवचनसार ता. वृ. ६/८/१ (ख) पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। (स विशिष्टपुण्यबन्धः) -द्रव्यसंग्रह टीका ३६/१५२/६ (ग) शीलमपवर्गसुखस्यापिमूलमाचार्याः प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परम्पराहेतुः। -नियमसार ता. वृ. १०७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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