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ॐ चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ३६५
पालन के १३ अंग हैं- पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति । व्यवहारचारित्र की भावनाएँ इस प्रकार हैं - ईर्यादि ( गमनादि) के विषय में यतना करना, अर्थात् ईर्या, भाषा, एषणा आदि पाँच समितियों का विवेकपूर्वक पालन करना, मन-वचन-काया की गुप्तियों का पालन करना तथा २२ प्रकार के शास्त्रोक्त परीषहों का सहन करना, इन्हें चारित्र की भावनाएँ समझना चाहिए । '
निश्चयदृष्टि से सम्यक् चारित्र के विविध लक्षण
अब निश्चयचारित्र के लक्षण देखिये- 'समयसार' के अनुसार - " अपने (आत्मा के) ही ज्ञान - स्वभाव में निरन्तर चरण (विचरण) करना (निश्चयदृष्टि से) चारित्र है ।" ' प्रवचनसार' का कथन है- “स्वरूप में चरण (रमण) करना, अर्थात् स्व-समय में प्रवृत्ति करना चारित्र है। वही वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है।" 'पंचास्तिकाय' में कहा है- " जीव का स्व-भाव में अवस्थित रहना ही चारित्र है । " 'नियमसार' के अनुसार - "निज स्वरूप में अविचल स्थिति रूप सहज निश्चयचारित्र है ।'' 'परमात्म-प्रकाश' के अनुसार - " अपनी आत्मा को जानकर तथा उसका श्रद्धान् करके जो सम्यग्ज्ञानवान् पर-भाव को छोड़ता है, वह निज आत्मा का शुद्ध भाव चारित्र होता है ।" 'समयसार तात्पर्य वृत्ति' में भी कहा है- " आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्ध 'आत्म-द्रव्य में निश्चल - निर्विकार- अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चयचारित्र का लक्षण है।" 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार - " रागादि दोषों से रहित शुभ ध्यान में लीन आत्म-स्वरूप वस्तु को उत्कृष्ट चारित्र जानो । " 'मोक्षपंचाशिका' में कहा है- " अपने में ही अवस्थित आत्मा को, आत्मा द्वारा जो स्व-संवेद्य सहज निराकुलताजनक सुख (आनन्द) प्राप्त होता है, वह निश्चयात्मकचारित्र है ।"२
१. (क) वद-समिदि - गुत्तिरूवं ववहारणयादु जिण भणियं ।
- द्रव्यसंग्रह मू. ४५
(ख) ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाक्काय- गुप्तयः परीषह सहिष्णुत्वमिति चारित्रभावनाः ।
-महापुराण २१/९८
२. (क) स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तर चरणाच्चारित्रं भवति ।
- समयसार आत्मख्याति ३८६
-प्रवचनसार त. प्र. ७
(ख) स्वरूपे चरणं चारित्रं, स्वसमय-प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तु-स्वभावत्वाद्धर्मः ॥ (ग) जीव- स्वभाव - नियत चारित्रं भवति । तदपि कस्मात् ? स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वचनात् । - पंचास्तिकाय ता. वृ. १५४ / २२४
- नियमसार ता. वृ. ५५
—-परमात्म-प्रकाश मू: २/३०+
(घ) स्वरूपाविचल स्थितिरूपं सहज - निश्चय चारित्रम् । (ङ) जाणवि मण्णवि अप्पपरु जो परभाउ चएहि ।
सोणियसुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरण हवेइ ।