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________________ * ३६६ कर्मविज्ञान : भाग ६ 'समयसार' में संक्षेप में चारित्र का लक्षण किया है - " रागादि का परिहार करना चारित्र है। " " द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार - " समस्त संकल्प-विकल्पों के त्याग द्वारा उसी (वीतराग) सुख में तृप्त सन्तुष्ट आत्मा के द्वारा एकाकार परम समताभाव से द्रवीभूत चित्त का पुनः पुनः उसी में स्थिर करना सम्यक्चारित्र है।” 'मोक्खपाहुड' में - पुण्य और पाप, दोनों के त्याग करने को चारित्र कहा है ।" ‘प्रवचनसार त. प्र.' के अनुसार - " ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से - यानी अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि-ज्ञातृ तत्त्व में ( ज्ञाता - द्रष्टाभाव में) परिणति ही जिसका लक्षण है, वह चारित्रपर्याय है ।" वस्तुतः प्रत्येक प्रवृत्ति, व्यक्ति या अवस्था के समय राग-द्वेष - मोह - कषायादि के प्रवाह में न बहकर केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहे तो वह आत्म-भावों में स्थित रहकर बहुत शीघ्र पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर सकता है, नये कर्म बाँधने से रुक सकता है । ' इसी दृष्टि से 'नयचक्र वृत्ति' में चारित्र के एकार्थवाची शब्द प्रस्तुत किये गये हैं"समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, स्वभाव की आराधना, धर्म और चारित्र, ये सब एकार्थवाची हैं ।" 'महापुराण' में भी इसी का समर्थन किया गया है- “इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं ।” 'प्रवचनसार' में भी इसी तथ्य को उजागर किया गया है - चारित्र ही वस्तुतः धर्म है और निर्देश किया है कि जो धर्म है वह साम्य (समभाव ) है तथा वह साम्य मोह पिछले पृष्ठ का शेष (च) आत्माधीन-ज्ञान-सुख-स्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये यन्निश्चल-निर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं तल्लक्षण-निश्चय-चारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते । - समयसार ता. वृ. ३८ (छ) अप्प-सरूवं वत्धु, चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं । सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ (ज) निराकुलत्वजं सौख्यं स्वयमेवावतिष्ठतः । यदात्मनैव संवेद्यं चारित्रं निश्चयात्मकम् ॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा १९ - मोक्षपंचाशिका मू. ४५ १. (क) रागादि - परिहरणं चरणं । - समयसार मू. १५५ (ख) संकल्प-विकल्प-जाल-त्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य सन्तुष्टस्य तृप्तस्यैकाकार-परमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारिन्नम् । - द्रव्यसंग्रह टीका ४०/१६३/१३. — मोक्खपाहुड मू. ३७ (ग) तच्चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं । (घ) ज्ञेय-ज्ञातृ-क्रियान्तर - निवृत्ति-सूत्र्यमाण इष्ट- ज्ञातृत्व - वृत्ति-लक्षणेन चारित्र पर्यायेण - प्र. सा. त. प्र. २४२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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