SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ३६४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र जानना चाहिए। व्यवहारनय से उस चारित्र को व्रत, समिति और गुप्तिरूप कहा है।"१ ___ यही तथ्य ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में दिया गया है-(सम्यक्चारित्र का विधान यह हैं कि) साधक एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे और एक ओर से प्रवृत्ति। अर्थात् वह असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे। इसका तात्पर्य यह है कि "निवृत्ति में असंयम उत्पन्न करने और बढ़ाने वाली तथा परिणाम में असंयमकारक वस्तु का विधिवत् त्याग-प्रत्याख्यान करना तथैव प्रवृत्ति में-संयमजनक, संयमवर्द्धक और परिणाम में संयमकारक वस्तु का स्वीकार करना।" 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कहा है-"हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रह, इन पाँचों पाप-प्रणालियों से विरत (निवृत्त) होना. सम्यग्ज्ञानयुक्त चारित्र है।"३ 'समयसार' में कहा गया है-(आत्मशुद्धि के लिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक) “जो नित्य प्रत्याख्यान करता है, नित्य प्रतिक्रमण करता है तथा प्रतिदिन आलोचना करता है, उस आत्मा के लिए वह वास्तव में चारित्र है।"४ 'योगसार' के अनुसार-"व्रतादि का आचरण करना व्यवहारचारित्र है।" 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' के अनुसार-“समस्त सावद्य-योग (पापयुक्त मन-वचन-काया के व्यापार) के त्याग से, सम्पूर्ण कणयों से रहित तथा पर-पदार्थों से विरक्तिरूप विशद चारित्र है, जो आत्मा का स्वरूप है।"५ ये सब व्यवहारचारित्र के लक्षण हैं। इस व्यवहारचारित्र पिछले पृष्ठ का शेष(ग) चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं, सामायिकादिकम्। चरति याति येन हितप्राप्तिं अहितनिवारणं चेति चारित्रम्॥ -भगवती आराधना, वि. ८/४१/११ (घ) संसारकारण-निवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादान-क्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम्। -सर्वार्थसिद्धि १/१/५/८ १. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वद-समिदि-गुत्तिरूव-ववहारणयादु जिण-भणियं॥ -द्रव्यसंग्रह मू. ४५ २. एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥ -उत्तरा. ३१/२ व्याख्या (आ. प्र. स.), पृ. ५५३ ३. हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्यां च। प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम्॥ -रल. क. श्रावकाचार ४९ ४. णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वइ, णिच्चं पडिक्कमदि यो य। _णिच्चं आलोचेयइ, सो हु चारित्तं हवइ चेया॥ -समयसार मू.३८६ ५. (क) कारणं निर्वृतेरतद्धारित्रं व्यवहारतः। -योगसार, अ.८, श्लो. ९५ (ख) चारित्रं भवति यतः समस्त-सावद्ययोग-परिहरणात्। सकलकषाय-विमुक्तं विशदमुदासीनकात्मरूपं तत्॥ -पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ३९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy